Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र तथा गति में रत रहने वाला केतु, २८ प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पाँच वर्णों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करनेवाले, अविश्रान्त मंडलमें गति करनेवाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं) (इन सबमें से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है । ये महर्द्धिक होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझना।
वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानावासों का, हजारों सामानिक देवों का, सपरिवार अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का, सेनाधिपति देवों का, हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्त्तित्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं । इन्हीं में दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज -चन्द्रमा और सूर्य-निवास करते हैं (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों ज्योतिष्क विमानावासों का, ४००० सामानिक देवों का, सपरिवार ४ अग्रमहिषियों का. ३ परिषदों का, ७ सेनाओं का, ७ सेनाधिपति देवों का. १६००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व करते हए यावत विचरण करते हैं। सूत्र - २२६
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ, अनेक हजार, अनेक लाख, बहुत करोड़ और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के ८४,९७,०२३ विमान एवं विमानावास हैं । वे विमान सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चीकने, कोमल, घिसे हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रासादीय, दर्शनीय, रमणीय, अभिरूप
और प्रतिरूप हैं । इन्हीं में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहत-से वैमानिक देव निवास करते हैं । वे सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक एवं अनुत्तरौपपातिक देव हैं । वे मृग, महिष, वराह, सिंह, बकरा, दर्दुर, हय, गजराज, भुजंग, खङ्ग, वृषभ और विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गौरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक महर्द्धिक यावत् (पूर्ववत्) विचरण करते हैं। सूत्र-२२७
भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर सौधर्म नामक कल्प हैं । वह पूर्व-पश्चिम लम्बा, उत्तर दक्षिण विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र आकार में संस्थित, अर्चियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान कान्तिवाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन है । वह सर्वरत्नमय है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उसमें सौधर्मदेवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं । विमान वर्णन पूर्ववत् । इन विमानों के बिलकुल मध्यदेशभाग में पाँच अवतंसक हैं । अशोकावतंसक, सप्त-वर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में पाँचवा सौधर्मावतंसक । इन्हीं में पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मक देवों के स्थान हैं । उनमें बहुत से सौधर्मक देव निवास करते हैं, जो कि 'महर्द्धिक हैं। (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानों का, यावत् बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, इत्यादि यावत् विचरण करते हैं।
इन्हीं में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, ३२ लाख विमानों का अधिपति है । ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, जो सुरेन्द्र है, रज-रहित स्वच्छ वस्त्र का धारक है, संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोलस्थल नवीन स्वर्णमय, सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से विलिखित होते हैं । वह महर्द्धिक हैं, इत्यादि पूर्ववत् । वह वहाँ ३२ लाख विमानावासों का, ८४००० सामानिक देवों का, तैंतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 31