Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, १६००० आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का यावत् विचरण करता हैं | भगवन् ! उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच देवों का स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! दक्षिणदिशा के पिशाच देवों के समान उत्तरदिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना । विशेष यह है कि (इनके नगरावास) मेरुपर्वत के उत्तर में हैं। इन्हीं में (उत्तरदिशा का) पिशाचेन्द्र पिशाचराज-महाकाल निवास करता है, इत्यादि । ।
इस प्रकार पिशाचों और उनके इन्द्रों के समान भूत यावत् गन्धर्वो तक का वर्णन समझना । विशेष-इनके इन्द्रों में भेद है । यथा-भूतों के (दो इन्द्र)-सुरूप और प्रतिरूप, यक्षों के पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम. किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय तथा गन्धर्वो के गीतरति और गीतयश; यावत विचरण करता है। तक समझ लेना। सूत्र- २१९, २२०
वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो-दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार हैं-काल और महाकाल, सुरूप और प्रतिरूप, पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, भीम और महाभीम । तथा- किन्नर और किम्पुरुष, सत्पुरुष और महापुरुष, अतिकाय
और महाकाय तथा गीतरति और गीतयश । सूत्र-२२१
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अणपर्णिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के मध्य में आठसौ योजन में, अणपर्णिक देवों के तीरछे असंख्यात लाख नगरावास हैं | नगरावास वर्णन पूर्ववत् । इनमें अणपर्णिक देवों के स्थान हैं । वहाँ बहुत-से अणपर्णिक देव निवास करते हैं, वे महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इन्हीं में दोनों अणपर्णिकेन्द्र अणपर्णिककुमारराज-सन्निहित और सामान निवास करते हैं, जो कि महर्द्धिक हैं, (इत्यादि) । इस प्रकार जैसे दक्षिण और उत्तरदिशा के (पिशाचेन्द्र) काल और महाकाल के समान सन्निहित और सामान आदि के विषय में कहना । सूत्र- २२२-२२४
अणपर्णिक, पणपर्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कुष्माण्ड और पतंगदेव । इनके (प्रत्येक के दो दो) इन्द्र ये हैं- सन्निहित और सामान, धाता और विधाता, ऋषि और ऋषिपाल, ईश्वर और महेश्वर, सुवत्स और विशाल । तथा- हास और हासरति, श्वेत और महाश्वेत, पतंग और पतंगपति । सूत्र-२२५
भगवन ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिष्क देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से ७९० योजन की ऊंचाई पर ११० योजन विस्तृत एवं तीरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र हैं, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तीरछे असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं । वे विमान आधा कवीठ के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं । वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं । विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र-विचित्र हैं; हवा से उड़ी हुई विजयवैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र से युक्त हैं; वे बहुत ऊंचे, गगनतलचुम्बी शिखरों वाले हैं । (उनकी) जालियों के बीच में लगे हए रत्न ऐसे लगते हैं, मानो पींजरे से बाहर नीकाले गए हों । वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं । तिलकों तथा रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं । वे अंदर और बाहर से चीकने हैं । उनके प्रस्तट सोने की रुचिर वालू वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं । इन में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्क देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
___ वहाँ बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक, ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति करते हैं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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