Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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मूलपाठ अतिविस्तृत है अथवा पुनरुक्त है, वहाँ विवेचन में उसका निष्कर्षमात्र दे दिया गया है। कहीं-कहीं विवेचन में कठिन शब्दों का विशेषार्थ अथवा विशिष्ट शब्दों की परिभाषाएँ भी दी गई हैं। कहीं-कहीं मूलपाठ में उक्त विषय को युक्ति हेतु पूर्वक सिद्ध करने का प्रयास भी विवेचन में किया गया है। विवेचन में प्रतिपादित विषयों एवं उद्धृत प्रमाणों के सन्दर्भ स्थलों का उल्लेख भी पादटिप्पणों (Foot notes) में कर दिया गया है। जहाँ कहीं आवश्यक समझा गया, वहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक एवं अन्यान्य ग्रन्थों के तुलनात्मक टिप्पण भी दिये गए हैं। प्रत्येक शतक के प्रारम्भ में प्राथमिक देकर शतक में प्रतिपादित विषयवस्तु की समीक्षा की गई है, ताकि पाठक उक्त शतक का हार्द समझ सके। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र विशालकाय आगम है, इसे और अधिक विशाले नहीं बनाने तथा पुनरुक्ति से बचने के लिए हमने संक्षिप्त एवं सारगर्भित विवेचनशैली रखी है। जहाँ आगमिक पाठों के संक्षेपसूचक 'जाव', जहा, एवं आदि शब्द हैं, उनका स्पष्टीकरण प्रायः शब्दार्थ में कर दिया गया है।
प्रस्तुत सम्पादन को समृद्ध बनाने के लिए अन्त में हमने तीन परिशिष्ट दिये हैं- एक में सन्दर्भग्रन्थों की सूची है, दूसरे में पारिभाषिक शब्दकोश और तीसरे में विशिष्ट शब्दों की अकारादि क्रम से सूची। ये तीनों ही परिशिष्ट अन्तिम खण्ड में देने का निर्णय किया गया है। इस विराट् आगम को हमने कई खण्डो में विभाजित किया है। यह प्रथम खंड प्रस्तुत है। कृतज्ञता-प्रकाशन
प्रस्तुत विराट्काय शास्त्र का सम्पादन करने में जिन-जिनके अनुवादों, मूलपाठों, टीकाओं एवं ग्रन्थों से सहायता ली गई है, उन सब अनुवादकों, सम्पादकों, टीकाकारों एवं ग्रन्थकारों के प्रति हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं। ___मैं श्रमणसंघीय युवाचार्यश्री मिश्रीमलजी महाराज एवं मेरे पूज्य गुरुदेव श्री भण्डारी पद्मचन्दजी महाराज के प्रति अत्यन्त आभारी हूँ, जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन से हम इस दुरूह, एवं बृहत्काय शास्त्र-सम्पादन में अग्रसर हो सके हैं। आगमतत्त्वमनीषी प्रवचनप्रभाकर श्री सुमेरमुनिजी म. एवं विद्वद्वर्य पं. मुनिश्री नेमिचन्द्रजी म. के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने निष्ठापूर्वक प्रस्तुत आगम-सम्पादनयज्ञ में पूरा सहयोग दिया है। आगम-मर्मज्ञ पं. शोभाचन्दजी भारिल्ल की श्रुतसेवाओं को कैसे विस्मृत किया जा सकता है। जिन्होंने इस विराट् शास्त्रराज को संशोधित-परिष्कृत करके मुद्रित कराने का दायित्व सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। साथ ही हम अपने ज्ञात-अज्ञात सहयोगीजनों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं, जिनकी प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से इस सम्पादनकार्य में सहायता मिली है।
___प्रस्तुत सम्पादन के विषय में विशेष कुछ कहना उपयुक्त नहीं होगा। सुज्ञ पाठक, विद्वान् शोधकर्ता, आगमरसिक | महानुभाव एवं तत्त्वमनीषी साधुसाध्वीगण सम्पादनकला की कसौटी पर कस कर इसे हृदय से अपनाएँगे और इसके अध्ययन-मनन से अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र को समुज्ज्वल बनाएंगे तो हम अपना श्रम सार्थक समझेंगे। सुज्ञेषु किं बहुना!
-अमरमुनि श्रीचन्द सुराना
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