Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 12
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-२ - वैतालिक उद्देशक-१ सूत्र-८९ सम्बोधि प्राप्त करो | बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? परलोक में सम्बोधि दुर्लभ है । बीती हुई रात्रियाँ लौटकर नहीं आती । संयमी जीवन पुनः सुलभ नहीं है। सूत्र-९० देखो ! बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु भी जीवनच्युत हो जाते हैं । जैसे बाज बटेर का हरण कर लेता है, वैसे ही आयु क्षय हो जाने पर जीवन-सूत्र टूट जाता है । सूत्र - ९१ वह कदाचित् माता-पिता से पहले ही मर जाता है । परलोक में सुगति सुलभ नहीं होती है । इन भयस्थलों को देखकर व्रती पुरुष हिंसा से विराम ले । सूत्र- ९२ इस जगत में सभी जन्तु अलग-अलग हैं । वे प्राणी कर्मों के कारण लिप्त हैं । वे स्वकृत क्रियाओं के द्वारा कर्म ग्रहण करते हैं । वे कर्मों का फल स्पर्श किये बिना छूट नहीं सकते । सूत्र - ९३ देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, सरीसृप, राजा, नगर-श्रेष्ठि और ब्राह्मण-ये सभी दुःखपूर्वक अपने स्थानों से च्युत होते हैं। सूत्र - ९४ मृत्यु आने पर प्राणी काम-भोग और सम्बन्धों को तोड़कर कर्म सहित चले जाते हैं । आयुष्य क्षय होने पर वे ताड़ फल की तरह टूटकर गिर जाते हैं। सूत्र-९५ यदि कोई बहश्रुत/शास्त्र-पारगामी हो या धार्मिक ब्राह्मण हो या भिक्षु, यदि वह मायामय-कृत्यों में मूर्च्छित होता है तो वह कर्मों द्वारा तीव्र पीड़ा प्राप्त करता है। सूत्र - ९६, ९७ देख ! सच्चा साधक विवेकमें उपस्थित होकर, संयममें अवतरित होकर ध्रुव का भाषण करता है । कर्मों को छोड़कर कृत्य करता है, तो परम-लोक को कैसे नहीं जान पाएगा? यद्यपि वह नग्न एवं कृश होकर विचरण करता है, मास-मास के अन्तमें भोजन करता है, तथापि वह माया आदि के कारण अनंत बार गर्भ में आता रहता है सूत्र - ९८ हे पुरुष ! मनुष्य-जीवन के अन्त तक पाप-कर्म से उपरत रह । यहाँ आसक्त तथा काम-मूर्छित, असंस्कृतपुरुष मोह को प्राप्त होते हैं। सूत्र - ९९ हे योगी ! तू यतना करता हुआ विचरण कर | मार्ग सूक्ष्म-प्राणियों से अनुप्राणित है । तू महावीर द्वारा सम्यक् प्ररूपित अनुशासन में पराक्रम कर । सूत्र-१०० वीर, संयम-उद्यत, विरत क्रोधादिकषाय-नाशक, पाप से विरत अभिनिवृत्त पुरुष किसी भी प्राणी का घात नहीं करता। सूत्र - १०१ इस संसार में केवल मैं ही लुप्त नहीं होता, अपितु लोक में दूसरे प्राणी भी लुप्त होते हैं । इस प्रकार मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12

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