Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 73
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पुरुष के अन्तर में शल्य गड़ गया हो, वह उस शल्य को स्वयं नहीं नीकालता न किसी दूसरे से नीकलवाता है, और न उस शल्य को नष्ट करवाता है, प्रत्युत निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है, तथा उसकी वेदना से अंदर ही अंदर पीड़ित होता हुआ उसे सहता रहता है, इसी प्रकार मायी व्यक्ति भी माया करके उस मायाशल्य को निन्दा के भय से स्वयं आलोचना नहीं करता, न उसका अतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गर्दा करता है, न वह उसको प्रायश्चित्त आदि उपायों से तोड़ता है, और न उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः पुनः न करने के लिए भी उद्यत नहीं होता, तथा उस पापकर्म के अनुरूप यथायोग्य तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता। प्रकार मायी इस लोक में प्रख्यात हो जाता है, अविश्वसनीय हो जाता है; परलोक में भी पुनः पुनः जन्म-मरण करता रहता है । वह दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे से धृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, निश्चिन्त होकर बुरे कार्यों में प्रवत्त होता है, असत कार्यों से निवृत्त नहीं होता, प्राणियों को दण्ड दे कर भी उसे स्वीकारता नहीं, छिपाता है। ऐसा मायावी शुभ लेश्याओं को अंगीकार भी नहीं करता । ऐसा मायी पुरुष पूर्वोक्त प्रकार की माया युक्त क्रियाओं के कारण पापकर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ६६० इसके पश्चात् बारहवा क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक है । वह इस प्रकार है-ये जो वन में निवास करने वाले हैं, जो कुटी बनाकर रहते हैं, जो ग्राम के निकट डेरा डाल कर रहते हैं, कईं एकान्त में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी गुप्त क्रिया करते हैं । ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत हैं और न ही विरत हैं, वे समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से स्वयं विरत नहीं हैं । वे स्वयं कुछ सत्य और कुछ मिथ्या वाक्यों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि मैं मारे जाने योग्य नहीं हूँ, अन्य लोग मारे जाने योग्य हैं, मैं आज्ञा देने योग्य नहीं हूँ, किन्तु दूसरे आज्ञा देने योग्य हैं, मैं परिग्रहण या निग्रह करने योग्य नहीं हूँ, दूसरे परिग्रह या निग्रह करने योग्य हैं, मैं संताप देने योग्य नहीं हूँ, किन्तु अन्य जीव संताप देने योग्य हैं, मैं उद्विग्न करने या जीवरहित करने योग्य नहीं हूँ, दूसरे प्राणी उद्विग्न, भयभीत या जीवरहित करने योग्य हैं । इस प्रकार परमार्थ से अनभिज्ञ वे अन्यतीर्थिक स्त्रियों और शब्दादि कामभोगों में आसक्त, गृद्ध सतत विषयभोगों में ग्रस्त, गर्हित एवं लीन रहते हैं। वे चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक कामभोगों का उपभोग करके मृत्यु के समय मृत्यु पा कर असुरलोक में किल्बिषी असुर के रूप में उत्पन्न होते हैं । उस आसुरी योनि से विमुक्त होने पर बकरे की तरह मूक, जन्मान्ध एवं जन्म से मूक होते हैं । इस प्रकार विषय-लोलुपता की क्रिया के कारण लोभप्रत्ययिक पापकर्म का बन्ध होता है । इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों को मुक्तिगमन योग्य श्रमण या माहन को सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए, और त्याग करना चाहिए। सूत्र-६६१ पश्चात् तेरहवा क्रियास्थान ऐर्यापथिक है । इस जगत में या आर्हतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से संवृत्त है तथा घरबार आदि छोड़कर अनगार हो गया है, जो ईर्यासमिति से युक्त है, जो भाषासमिति से युक्त है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने और रखने की समिति से युक्त है, जो लघु नीति, बड़ी नीति, थूक, कफ, नाक के मैल आदि के परिष्ठापन की समिति से युक्त है, जो मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त है, जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त है, जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं, जिसका ब्रह्मचर्य नौ गुप्तियों से गुप्त है, जो साधक उपयोग सहित गमन करता है, उपयोगपूर्वक खड़ा होता है, बैठता है, करवट बदलता है, भोजन करता है, बोलता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि को ग्रहण करता है और उपयोगपूर्वक ही इन्हें रखता-उठाता है, यहाँ तक कि आँखों की पलकें भी उपयोगसहित झपकाता है। ऐसे साधु में विविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसे वह करता है । उस ऐर्यापथिकी क्रिया का प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श होता है, द्वितीय समय में उसका वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 73

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