Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
अध्ययन-७- नालंदीय सूत्र - ७९३
धर्मोपदेष्टा तीर्थंकर महावीर के उस काल में तथा उस समय में राजगृह नामका नगर था । वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था, यावत् बहुत ही सुन्दर था । उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग में नालन्दा नामकी बाहिरिका-उपनगरी थी । वह अनेक-सैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् प्रतिरूप थी। सूत्र - ७९४
उस नालन्दा नामक बाहिरिका में लेप नामक एक गाथापति रहता था, वह बड़ा ही धनाढ्य, दीप्त और प्रसिद्ध था । वह विस्तीर्ण विपुल भवनों, शयन, आसन, यान एवं वाहनों से परिपूर्ण था । उसके पास प्रचुर धन सम्पत्ति व बहुत-सा सोना एवं चाँदी थी । वह धनार्जन के उपायों का ज्ञाता और अनेक प्रयोगों में कुशल था । उसके यहाँ से बहुत-सा आहार-पानी लोगों को वितरित किया जाता था । वह बहुत-से दासियों, दासों, गायों, भैंसों और भेड-बकरियों का स्वामी था । तथा अनेक लोगों से भी पराभव नहीं पाता था।
वह लेप नामक गाथापति श्रमणोपासक भी था । वह जीव अजीव का ज्ञाता था । आश्रव-संवर, वेदना, निर्जरा, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के तत्त्वज्ञान में कुशल था । वह देवगणों से सहायता नहीं लेता था, न ही देवगण उसे धर्म से विचलित करने में समर्थ थे । वह लेप श्रमणोपासक था, अन्य दर्शनों की आकांक्षा या धर्माचरण की फलाकांक्षा से दूर था, उसे धर्माचरण के फल में कोई सन्देह न था, अथवा गुणी पुरुषों की निन्दाजुगुप्सा से दूर रहता था । वह लब्धार्थ था, वह गृहीतार्थ था, वह पृष्टार्थ था, अतएव वह विनिश्चितार्थ था । वह अभिगृहीतार्थ था । धर्म या निर्ग्रन्थप्रवचन के अनुराग में उसकी हड्डियाँ और नसें (रगें) रंगी हुई थीं।
यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, यही परमार्थ है, इसके अतिरिक्त शेष सभी (दर्शन) अनर्थरूप हैं । उसका स्फटिकसम निर्मल यश चारों ओर फैला हुआ था । उसके घर का मुख्य द्वार याचकों के लिए खुला रहता था । राजाओं के अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था इतना वह विश्वस्त था।
वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पोषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता हुआ श्रावकधर्म का आचरण करता था । वह श्रमणों को तथाविध शास्त्रोक्त ४२ दोषों से रहित निर्दोष एषणीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूप चतुर्विध के दान से प्रतिलाभित करता हुआ, बहुत से शील, गुणव्रत तथा हिंसादी से विरमणरूप अणुव्रत, तपश्चरण, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास आदि से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ धर्माचरण में रत रहता था। सूत्र - ७९५
उस लेप गाथापति की वहीं शेषद्रव्या नाम की एक उदक शाला थी, जो राजगृह की बाहिरिका नालन्दा के बाहर उत्तरपूर्व-दिशा में स्थित थी । वह उदकशाला अनेक प्रकार के सैकड़ों खंभो पर टिकी हुई, मनोरम एवं अतीव सन्दर थी । उस शेषद्रव्या नामक उदकशाला के ईशानकोण में हस्तियाम नामका एक वनखण्ड था । वह वनखण्ड कृष्णवर्ण-सा था । (शेष वर्णन औपपातिक-सूत्रानुसार जानना ।) सूत्र - ७९६
उसी वनखण्ड के गृहप्रवेश में भगवान गौतम गणधर ने निवास किया । (एक दिन) भगवान गौतम उस वनखण्ड के अधोभाग में स्थित आराम में विराजमान थे । इसी अवसर में मेदार्यगोत्रीय एवं भगवान पार्श्वनाथ स्वामी का शिष्य-संतान निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र जहाँ भगवान गौतम विराजमान थे, वहाँ उनके समीप आए । उन्होंने भगवान गौतमस्वामी के पास आकर सविनय यों कहा-''आयुष्मन् गौतम ! मुझे आपसे कोई प्रश्न पूछना है, आपने जैसा सूना है, या निश्चित किया है, वैसा मुझे विशेषवाद सहित कहें।' इस प्रकार विनम्र भाषा में पूछे जाने पर भगवान गौतम ने उदक पेढालपुत्र से यों कहा-हे आयुष्मन् ! आपका प्रश्न सूनकर और उसके गुण-दोष का सम्यक् विचार करके यदि मैं जान जाऊंगा तो उत्तर दूंगा।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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