Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-७९७
सद्वचनपूर्वक उदक पेढालपुत्र ने भगवान गौतम स्वामी से कहा-''आयुष्मन् गौतम ! कुमारपुत्र नामके श्रमण निर्ग्रन्थ हैं, जो आपके प्रवचन का उपदेश करते हैं । जब कोई गृहस्थ श्रमणोपासक उनके समीप प्रत्याख्यान ग्रहण करने के लिए पहुंचता है तो वे उसे इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं-'राजा आदि के अभियोग के सिवाय गाथापति त्रस जीवों को दण्ड देने का त्याग है। परन्तु जो लोग इस प्रकार से प्रत्याख्यान करते हैं, उनका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है, तथा इस रीति से जो प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी दुष्प्रत्याख्यान करते हैं; क्योंकि इस प्रकार से दूसरे को प्रत्याख्यान कराने वाले साधक अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं । प्रतिज्ञाभंग किस कारण से हो जाता है ? (वह भी सून ले;) सभी प्राणी संसरणशील हैं । जो स्थावर प्राणी हैं, वे भविष्य में त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तथा जो त्रसप्राणी हैं, वे भी स्थावररूप में उत्पन्न हो जाते हैं । (अतः) त्रसप्राणी जब स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं, तब त्रसकाय के जीवों को दण्ड न देने की प्रतिज्ञा किये उन पुरुषों द्वारा (स्थावरकाय में उत्पन्न होने से) वे जीव घात करने के योग्य हो जाते हैं। सूत्र - ७९८
किन्तु जो (गृहस्थ श्रमणोपासक) इस प्रकार प्रत्याख्यान करते हैं, उनका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है; तथा इस प्रकार से जो दूसरे को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी अपनी प्रतिज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । वह प्रत्याख्यान इस प्रकार है- राजा आदि के अभियोग को छोड़कर वर्तमान में त्रसभूत प्राणीयों को दण्ड देने का त्याग है। इसी तरह त्रस' पद के बाद 'भूत' पद लगा देने से ऐसे भाषापराक्रम के विद्यमान होने पर भी जो लोग क्रोध या लोभ के वश होकर दूसरे को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हैं; ऐसा मेरा विचार है । क्या हमारा यह उपदेश न्याय-संगत नहीं है ? आयुष्मान गौतम ! क्या आपको भी हमारा यह मन्तव्य रुचिकर लगता है? सूत्र-७९९
भगवान गौतम ने उदक पेढ़ालपुत्र निर्ग्रन्थ से सद्भावयुक्त वचन, या वाद सहित इस प्रकार कहा'आयुष्मन् उदक ! हमें आपका इस प्रकार का यह मन्तव्य अच्छा नहीं लगता । जो श्रमण या माहन इस प्रकार कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण या निर्ग्रन्थ यथार्थ भाषा नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं । वे लोग श्रमणों और श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं, तथा जो प्राणीयों, भूतों, जीवों
और सत्त्वों के विषय में संयम करते-कराते हैं, उन पर भी वे दोषारोपण करते हैं । किस कारण से ? (सूनिए), समस्त प्राणी परिवर्तनशील होते हैं । त्रस प्राणी स्थावर के रूप में आते हैं, इसी प्रकार स्थावर जीव भी त्रस के रूप में आते हैं । अतः जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रसजीवघात-प्रत्याख्यानी पुरुषों द्वारा हनन करने योग्य नहीं होते। सूत्र - ८००
उदक पेढ़ालपुत्र ने सद्भावयुक्त वचनपूर्वक भगवान गौतम से इस प्रकार कहा-'आयुष्मन् गौतम ! वे प्राणी कौन-से हैं, जिन्हें आप त्रस कहते हैं ? आप त्रस प्राणी को ही त्रस कहते हैं, या किसी दूसरे को ?' भगवान गौतम ने भी सद्वचनपूर्वक उदक पेढालपुत्र से कहा-''आयुष्मन् उदक ! जिन प्राणीयों को आप त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम त्रसप्राणी कहते हैं और हम जिन्हें त्रसप्राणी कहते हैं, उन्हीं को आप त्रसभूत कहते हैं । ये दोनों ही शब्द एकार्थक हैं । फिर क्या कारण है कि आप आयुष्मान त्रसप्राणी को 'त्रसभूत' कहना युक्तियुक्त समझते हैं, और त्रसप्राणी को 'त्रस' कहना युक्तिसंगत नहीं समझते; जबकि दोनों समानार्थक हैं । ऐसा करके आप एक पक्ष की निन्दा करते हैं और एक पक्ष का अभिनन्दन करते हैं । अतः आपका यह भेद न्यायसंगत नहीं है।
आगे भगवान गौतमस्वामी ने उदक पेढालपुत्र से कहा-आयुष्मन् उदक ! जगत में कईं मनुष्य ऐसे होते हैं, जो साधु के निकट आकर उनसे पहले ही इस प्रकार कहते हैं-'भगवन् ! हम मुण्डित होकर अर्थात्-समस्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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