Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृहत्याग करके आगार धर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में सभी समर्थ नहीं हैं, किन्तु हम क्रमशः साधुत्व का अंगीकार करेंगे, अर्थात्-पहले हम स्थूल प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करेंगे, उसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात का त्याग करेंगे । तदनुसार वे मनमें ऐसा ही निश्चय करते हैं और ऐसा ही विचार प्रस्तुत करते हैं । तदनन्तर वे राजा आदि के अभियोग का आगार रखकर गृहपति-चोर-विमोक्षणन्याय से त्रस प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं । वह (त्रस-प्राणिवध का) त्याग भी उन (श्रमणोपासकों) के लिए अच्छा ही होता है। सूत्र -८०१
त्रस जीव भी त्रस सम्भारकृत कर्म के कारण त्रस कहलाते हैं । और वे त्रसनामकर्म के कारण ही त्रसनाम धारण करते हैं। और जब उनकी त्रस की आय परीक्षिण हो जाती है तथा त्रसकाय में स्थितिरूप कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं; और त्रस का आयुष्य छोडकर वे स्थावरत्व को प्राप्त करते हैं । स्थावर जीव भी स्थावरसम्भारकृत कर्म के कारण स्थावर कहलाते हैं; और वे स्थावरनामकर्म के कारण ही स्थावर नाम धारण करते हैं और जब उनकी स्थावर की आयु परिक्षीण हो जाती है, तथा स्थावरकाय में उनकी स्थिति की अवधि पूर्ण हो जाती है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं । वहाँ से उस आयु को छोड़कर पुनः वे त्रसभाव को प्राप्त करते हैं । वे जीव प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय भी होते हैं और चिरकाल तक स्थितिवाले भी। सूत्र - ८०२
(पुनः) उदक पेढालपुत्र ने वादपूर्वक भगवान गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् गौतम ! (मेरी समझ में) जीव की कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जिसे दण्ड न देकर श्रावक अपने एक भी प्राणी के प्राणातिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान को सफल कर सके ! उसका कारण क्या है ? (सूनिए) समस्त प्राणी परिवर्तनशील हैं, (इस कारण) कभी स्थावर प्राणी भी त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और कभी त्रसप्राणी स्थावर रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। (ऐसी स्थिति में) वे सबके सब स्थावरकाय को छोड़कर त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, और कभी त्रसकाय को छोड़कर स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं । अतः स्थावरकाय में उत्पन्न हुए सभी जीव उन (त्रसकायजीववध-त्यागी) श्रावकों के लिए घात के योग्य हो जाते हैं।
भगवान गौतम ने उदक पेढालपुत्र से युक्तिपूर्वक कहा-आयुष्मन उदक ! हमारे वक्तव्य के अनुसार तो यह प्रश्न ही नहीं उठता आपके वक्तव्य के अनुसार (यह प्रश्न उठ सकता है), परन्तु आपके सिद्धान्तानुसार थोड़ी देर के लिए मान ले कि सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जाएंगे तब भी वह (एक) पर्याय (त्रसरूप) अवश्य है, जिसके रहते (त्रसघातत्यागी) श्रमणोपासक सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के घात का त्याग सफल होता है। इसका कारण क्या है ? (सूनिए), प्राणीगण परिवर्तनशील है, इसलिए त्रस प्राणी जैसे स्थावर के रूप उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्थावर प्राणी भी त्रस के रूप उत्पन्न हो जाते हैं।
अतः जब वे सब त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वह स्थान (समस्त त्रसकायीय प्राणीवर्ग) श्रावकों के घातयोग्य नहीं होता । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । वे विशालकाय भी होते हैं और चिरकाल तक की स्थिति वाले भी । वे प्राणी बहुत हैं, जिनमें श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल सुप्रत्याख्यान होता है। तथा (आपके मन्तव्यानुसार उस समय) वे प्राणी (स्थावर) होते ही नहीं जिनके लिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता । इस प्रकार वह श्रावक महान त्रसकाय के घात से उपशान्त, (स्व-प्रत्याख्यान में) उपस्थित तथा (स्थूलहिंसा से) प्रतिविरत होता है।
___ ऐसी स्थिति में आप या दूसरे लोग, जो यह कहते हैं कि (जीवों का) एक भी पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का एक भी प्राणी के प्राणातिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान यथार्थ एवं सफल हो सके । अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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