Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वन्दना, आसन प्रदान, अभ्युत्थान, आहारादि का आदान-प्रदान इत्यादि) व्यवहार करने योग्य है ? निर्ग्रन्थ-हाँ, करने योग्य है। श्री गौतमस्वामी-वे दीक्षापालन करते हुए चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक देशों में भ्रमण करके क्या पुनः गृहवास में जा सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे जा सकते हैं । श्री गौतमस्वामी-साधुत्व छोड़कर गृहस्थपर्याय में आये हुए वैसे व्यक्तियों के साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य है ?
निर्ग्रन्थ-नहीं, अब उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं रखा जा सकता।
श्री गौतमस्वामी-आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! वह जीव तो वही है, जिसके साथ दीक्षाग्रहण करने से पूर्व साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित नहीं होता, और यह वही जीव है, जिसके साथ दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित होता है, तथा यह वही जीव है, जिसने अब साधुत्व का पालन करना छोड़ दिया है, तब उसके साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य नहीं है । यह जीव पहले गृहस्थ था, तब अश्रमण था, बाद में श्रमण हो गया, और इस समय पुनः अश्रमण है । अश्रमण के साथ श्रमण निर्ग्रन्थों को सांभोगिक व्यवहार रखना कल्पनीय नहीं होता । निर्ग्रन्थो ! इसी तरह इसे (यथार्थ) जानो, और इसी तरह इसे जानना चाहिए।
भगवान श्री गौतमस्वामी ने कहा-कईं श्रमणोपासक बड़े शान्त होते हैं । वे साधु के सान्निध्य में आकर सर्व प्रथम यह कहते हैं-हम मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हैं । हम तो चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णमासी के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक् अनुपालन करेंगे तथा हम स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन, एवं स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान करेंगे । हम अपनी ईच्छा का परिमाण करेंगे । हम ये प्रत्याख्यान दो करण एवं तीन योग से करेंगे । (हम जब पौषधव्रत में होंगे, तब अपने कौटुम्बिक जनों से पहले कहेंगे-) मेरे लिए कुछ भी (आरम्भ) न करना और न ही कराना । तथा उस पौषध में अनुमति का भी प्रत्याख्यान करेंगे।
पौषधस्थित वे श्रमणोपासक बिना खाए-पीए तथा बिना स्नान किये एवं ब्रह्मचर्य-पौषध या व्यापारत्यागपौषध करके दर्भ के संस्तारक स्थित (ऐसी स्थिति में सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करते हुए) यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उनके मरण के विषय में क्या कहना होगा? यही कहना होगा कि वे अच्छी तरह से कालधर्म को प्राप्त हुए । देवलोक में उत्पत्ति होने से वे त्रस ही होते हैं । वे (प्राणधारण करने के कारण) प्राणी भी (त्रसनामकर्म का उदय होने से) त्रस भी कहलाते हैं, (एक लाख योजन तक के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण) वे महाकाय भी होते हैं तथा (सैंतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से) वे चिरस्थितिक भी होते हैं । वे प्राणी संख्या में बहत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी थोड़े हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता । इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान त्रसकायिहिंसा से निवृत्त हैं । फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं । अतः आपका यह दर्शन न्यायसंगत नहीं है।
(फिर) भगवान गौतम स्वामी ने (उदक निर्ग्रन्थ से) कहा-कईं श्रमणोपासक ऐसे भी होते हैं, जो पहले से इस प्रकार कहते हैं कि हम मुण्डित होकर गहस्थावास को छोडकर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में अभी समर्थ नहीं हैं, और न ही हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा, इन पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करने में समर्थ हैं । हम तो अन्तिम समय में अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना के सेवन से कर्मक्षय करने की आराधना करते हुए आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान करके दीर्घकाल तक जीने की या शीघ्र ही मरने की आकांक्षा न करते हुए विचरण करेंगे । उस समय हम तीन करण और तीन योग से समस्त प्राणातिपात, समस्त मृषावाद, समस्त अदत्तादान, समस्त मैथुन और सर्वपरिग्रह का प्रत्याख्यान करेंगे । हमारे लिए कुछ भी आरम्भ मत करना, और न ही कराना । उस संलेखनाव्रत में हम अनुमोदन का भी प्रत्याख्यान करेंगे । इस प्रकार संलेखनाव्रत में स्थित साधक बिना खाए-पीए, बिना स्नानादि किए, पलंग आदि आसन से उतरकर सम्यक् प्रकार से संलेखना
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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