Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-८०३
भगवान गौतम कहते हैं कि मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-आयुष्मन् निर्ग्रन्थों ! इस जगत में कईं मनुष्य ऐसे होते हैं; वे इस प्रकार वचनबद्ध होते हैं कि ये जो मुण्डित हो कर, गृह त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हैं, इनको आमरणान्त दण्ड देने का मैं त्याग करता हूँ; परन्तु जो ये लोग गृहवास करते हैं, उनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग मैं नहीं करता । अब मैं पूछता हूँ कि प्रव्रजित श्रमणों में से कोई श्रमण चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहवास कर सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे पुनः गृहस्थ बन
भगवान गौतम-श्रमणों के घात का त्याग करने वाले उस प्रत्याख्यानी व्यक्ति का प्रत्याख्यान क्या उस गृहस्थ बने हुए व्यक्ति का वध करने से भंग हो जाता है ? निर्ग्रन्थ-नहीं, यह बात सम्भव (शक्य) नहीं है । श्री गौतमस्वामी-इसी तरह श्रमणोपासक ने त्रस प्राणीयों को दण्ड देने (वध करने) का त्याग किया है, स्थावर प्राणियों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया । इसलिए स्थावरकाय में वर्तमान (स्थावरकाय को प्राप्त भूतपूर्व त्रस) का वध करने से भी उसका प्रत्याख्यन भंग नहीं होता । निर्ग्रन्थों ! इसे इसी तरह समझो, इसे इसी तरह समझना चाहिए।
भगवान श्री गौतमस्वामी ने आगे कहा कि निर्ग्रन्थों से पूछना चाहिए कि आयुष्मन निर्ग्रन्थो ! इस लोक में गृहपति या गृहपतिपुत्र उस प्रकार के उत्तम कुलों में जन्म लेकर धर्मश्रवण के लिए साधुओं के पास आ सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे आ सकते हैं | श्री गौतमस्वामी-क्या उन उत्तमकुलोत्पन्न पुरुषों को धर्म का उपदेश करना चाहिए? निर्ग्रन्थ-हाँ, उन्हें धर्मोपदेश किया जाना चाहिए।
श्री गौतमस्वामी-क्या वे उस धर्म को सूनकर, उस पर विचार करके ऐसा कह सकते हैं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर है, केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, परिपूर्ण है, सम्यक् प्रकार से शुद्ध है, न्याययुक्त है, माया-निदान-मिथ्या-दर्शनरूप शल्य को काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्याण मार्ग है, निर्वाण मार्ग है, अवितथ है, सन्देहरहित है, समस्त दुःखों को नष्ट करने का मार्ग है; इस धर्म में स्थित होकर अनेक जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, तथा समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । अतः हम धर्म की आज्ञा के अनुसार, इसके द्वारा विहित मार्गानुसार चलेंगे, स्थित होंगे, बैठेंगे, करवट बदलेंगे, भोजन करेंगे, तथा उठेंगे । उसके विधानानुसार घरबार आदि का त्याग कर संयमपालन के लिए अभ्युद्यत होंगे, तथा समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा के लिए संयम धारण करेंगे । क्या वे इस प्रकार कह सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे ऐसा कह सकते हैं।
श्री गौतमस्वामी-क्या इस प्रकार के विचार वाले वे पुरुष प्रव्रजित करने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे प्रव्रजित करने योग्य हैं । श्री गौतमस्वामी-क्या इस प्रकार के विचार वाले वे व्यक्ति मुण्डित करने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे मुण्डित किये जाने योग्य हैं । श्री गौतमस्वामी-क्या वे वैसे विचार वाले पुरुष शिक्षा देने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे शिक्षा देने योग्य हैं । श्री गौतमस्वामी-क्या वैसे विचार वाले साधक महाव्रतारोपण करने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे उपस्थापन योग्य हैं। श्री गौतमस्वामी-क्या प्रव्रजित होकर उन्होंने समस्त प्राणियों, तथा सर्वसत्त्वों को दण्ड देना छोड दिया ? निर्ग्रन्थ-हाँ, उन्होंने सर्व प्राणियों की हिंसा छोड दी। सूत्र - ८०४
भगवान श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा-मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएं किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों से चलकर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, आ सकती हैं। श्री गौतमस्वामी-क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश देना चाहिए ? निर्ग्रन्थ-हाँ, उन्हें धर्मोपदेश देना चाहिए । श्री गौतमस्वामी-धर्मोपदेश सूनकर यदि उन्हें वैराग्य हो जाए तो क्या वे प्रव्रजित करने, मुण्डित करने, शिक्षा देने या महाव्रतारोहण करने के योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ, वे प्रव्रजित यावत् महाव्रतारोपण करने योग्य हैं।
__ श्री गौतमस्वामी-क्या दीक्षा ग्रहण किये हुए तथाप्रकार के व्यक्तियों के साथ साधु को साम्भोगिक (परस्पर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 107