Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-४ - प्रत्याख्यानक्रिया सूत्र-७००
आयुष्मन् ! उन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था, इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया अध्ययन है । उसका यह अर्थ बताया है कि आत्मा अप्रत्याख्यानी भी होता है; आत्मा अक्रियाकुशल भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व में संस्थित भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से दूसरे प्राणियों को दण्ड देने वाला भी होता है; आत्मा एकान्त बाल भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से सुषुप्त भी होता है; आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य पर विचार न करने वाला भी होता है। और आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत एवं प्रत्याख्यान नहीं करता।
जीव को भगवान ने असंयत, अविरत, पापकर्म का घात और प्रत्याख्यान न किया हआ, क्रियासहित, संवरसहित, प्राणियों को एकान्त दण्ड देने वाला, एकान्त बाल, एकान्तसुप्त कहा है । मन, वचन, काया और वाक्य के विचार से रहित वह अज्ञानी, चाहे स्वप्न भी न देखता हो तो भी वह पापकर्म करता है। सूत्र-७०१
इस विषय में प्रेरक ने प्ररूपक से इस प्रकार कहा-पापयुक्त मन न होने पर, पापयुक्त वचन न होने पर, तथा पापयुक्त काया न होने पर जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता, जो अमनस्क है, जिसका मन, वचन, शरीर और वाक्य हिंसादि पापकर्म के विचार से रहित है, जो पापकर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता ऐसे जीव के पापकर्म का बन्ध नहीं होता । किस कारण से उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता ? प्रेरक इस प्रकार कहता है-किसी का मन पापयुक्त होने पर ही मानसिक पापकर्म किया जाता है, तथा पापयुक्त वचन होने पर ही वाचिक पापकर्म किया जाता है, एवं पापयुक्त शरीर होने पर ही कायिक पापकर्म किया जाता है । जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो जानबूझ कर मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता है, जो स्पष्ट विज्ञानयुक्त भी है । इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव पापकर्म करता है । पुनः प्रेरक कहता है-'इस विषय में जो लोग ऐसा कहते हैं कि मन पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा शरीर भी पापयुक्त न हो, किसी प्राणी का घात न करता हो, अमनस्क हो, मन, वचन, काया और वाक्य के द्वारा भी विचार से रहित हो, स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो, तो भी (वह) पापकर्म करता है। जो इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं।
इस सम्बन्ध में प्रज्ञापक ने प्रेरक से कहा-जो मैंने पहले कहा था कि मन पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा काया भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, चाहे वह मन, वचन, काया और वाक्य का समझ-बुझकर प्रयोग न करता हो, और वैसा (पापकारी) स्वप्न भी न देखता हो, ऐसा जीव भी पापकर्म करता है, वही सत्य है । ऐसे कथन के पीछे कारण क्या है ? आचार्य ने कहा-इस विषय में श्री तीर्थंकर भगवान ने षट्जीवनिकाय कर्मबन्ध के हेतु के रूप में बताए हैं । इन छह प्रकार के जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिस आत्मा ने नष्ट नहीं किया, तथा भावी पाप को प्रत्याख्यान द्वारा रोका नहीं, बल्कि सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में चित्त लगाए रखता है, और उन्हें दण्ड देता है तथा प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है।
आचार्य पुनः कहते हैं इसके विषय में भगवान महावीर ने वधक का दृष्टान्त बताया है-कोई हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा गृहपति के पुत्र की अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करना चाहता है। अब पाकर मैं घर में प्रवेश करूँगा और अवसर पाते ही प्रहार करके हत्या कर दूंगा । इस प्रकार वह हत्यारा दिन को या रात को, सोते या जागते प्रतिक्षण इसी उधेड़बुन में रहता है, जो उन सबका अमित्र भूत है, उन सबसे मिथ्या व्यवहार करने में जुटा हुआ है, जो चित्तरूपी दण्ड में सदैव विविध प्रकार से निष्ठुरतापूर्वक घात का दुष्ट विचार रखता है, क्या ऐसा व्यक्ति उन पूर्वोक्त व्यक्तियों का हत्यारा कहा जा सकता है, या नहीं ? आचार्यश्री के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर प्रेरक समभाव के साथ कहता है-''हाँ, पूज्यवर ! ऐसा पुरुष हत्यारा ही है।''
आचार्य न कहा-जैसे उस गृहपति या गृहपति के पुत्र को अथवा राजा या राजपुरुष को मारना चाहने
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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