Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ७६१
पूर्वोक्त सावद्य अनुष्ठान से वणिक् का जो उदय होता है वह न तो एकान्तिक है और न आत्यन्तिक । विद्वान लोग कहते हैं कि जो उदय इन दोनों गुणों से रहित है, उसमें कोई गुण नहीं है । किन्तु भगवान महावीर को जो उदय प्राप्त है, वह आदि और अनन्त है । त्राता एवं ज्ञातवंशीय या समस्त वस्तुजात के ज्ञाता भगवान महावीर इसी उदय का दूसरों को उपदेश करते हैं, या इसकी प्रशंसा करते हैं । सूत्र-७६२
भगवान प्राणीयों की हिंसा से सर्वथा रहित हैं, तथा समस्त प्राणीयों पर अनुकम्पा करते हैं । वे धर्म में सदैव स्थित हैं । ऐसे कर्मविवेक के कारणभूत वीतराग को, आप जैसे आत्मा को दण्ड देने वाले ही वणिक् सदृश कहते हैं। यह आपके अज्ञान के अनरूप ही है। सूत्र - ७६३
(शाक्यभिक्षु आर्द्रक मुनि से कहने लगे-) कोई व्यक्ति खलो के पिण्ड को यह पुरुष है' यों मानकर शूल से बींधकर पकाए अथवा तुम्बे को कुमार मान कर पकाए तो हमारे मत में वह प्राणीवध के पाप से लिप्त होता है। सूत्र-७६४
अथवा वह म्लेच्छ मनुष्य को खली समझकर उसे शूल में बींध कर, अथवा कुमार को तुम्बा समझकर पकाए तो वह प्राणीवध के पाप से लिप्त नहीं होता। सूत्र-७६५
कोई पुरुष मनुष्य को या बालक को खली का पिण्ड मानकर उसे शूल में बींधकर आग में पकाए तो वह पवित्र है, बुद्धों के पारणे के योग्य है। सूत्र-७६६
जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान पुण्यराशि का उपार्जन करके महापराक्रमी आरोप्य नामक देव होता है। सूत्र - ७६७, ७६८
(आर्द्रक मुनिने बौद्ध भिक्षुओं को कहा) आपके इस सिद्धान्त संयमियों के लिए अयोग्यरूप हैं । प्राणीयों का घात करने पर पाप नहीं होता, जो ऐसा कहते, सूनते या मान लेते हैं; वह अबोधिलाभ का कारण है और बूरा है 'ऊंची, नीची और तीरछी दिशाओंमें त्रस और स्थावर जीवों के अस्तित्व का लिंग जानकर जीवहिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से धृणा करता हुआ विचार कर बोले या कार्य करे तो उसे पाप-दोष कैसे हो सकता है ? सूत्र - ७६९
जो पुरुष खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि अथवा पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि रखता है, वह अनार्य है। खली के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि कैसे सम्भव है ? अतः आपके द्वारा कही हुई यह वाणी भी असत्य है । सूत्र - ७७०
जिस वचन के प्रयोग से जीव पापकर्म का उपार्जन करे, ऐसा वचन कदापि नहीं बोलना चाहिए । (प्रव्रजितों के लिए) यह वचन गुणों का स्थान नहीं है । अतः दीक्षित व्यक्ति ऐसा निःसार वचन नहीं बोलता । सूत्र - ७७१
तुमने ही पदार्थों को उपलब्ध कर लिया है । जीवों के कर्मफल का अच्छी तरह चिन्तन किया है। तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक फैल गया है । तुमने ही करतलमें पदार्थ समान इस जगत को देख लिया है सूत्र - ७७२
साधु जीवों की पीड़ा का सम्यक् चिन्तन करके आहार ग्रहण करने की विधि से शुद्ध आहार स्वीकार करते हैं; वे कपट से जीविका करने वाले बनकर मायामय वचन नहीं बोलते । संयमी पुरुषों का यही धर्म है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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