Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-७४८
(गोशालक ने पुनः कहा-) हे आर्द्रक ! इस वचन को कहकर तुम समस्त प्रावादुकों की निन्दा करते हो । प्रावादुकगण अपने-अपने धर्म-सिद्धान्तों की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि प्रकट करते हैं । सूत्र - ७४९-७५१
(आर्द्रक मुनि गोशालक से कहते हैं-) वे श्रमण और ब्राह्मण एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं । अपने धर्ममें कथित अनुष्ठान से ही पुण्य धर्म या मोक्ष होना कहते हैं, दूसरे धर्ममें कथित क्रिया के अनुष्ठान से नहीं । हम उनकी दृष्टि की निन्दा करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं।
हम किसी के रूप, वेष आदि की निन्दा नहीं करते, अपित हम अपनी दष्टि से पनीत मार्ग को अभिव्यक्त करते हैं । यह मार्ग अनुत्तर है, और आर्य सत्पुरुषों ने इसे ही निर्दोष कहा है।
ऊर्ध्वदिशा अधोदिशा एवं तिर्यक् दिशाओं में जो जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं, उन प्राणीयों की हिंसा से धणा करनेवाले संयमी पुरुष इस लोकमें किसी की निन्दा नहीं करते । सूत्र-७५२,७५३
(गोशालक ने आर्द्रकमुनि से कहा-) तुम्हारे श्रमण (महावीर) अत्यन्त भीरु हैं, इसीलिए पथिकागारों में तथा आरामगृहों में निवास नहीं करते, उक्त स्थानों में बहुत-से मनुष्य ठहरते हैं, जिनमें कोई कम या कोई अधिक वाचाल होता है, कोई मौनी होते हैं । कईं मेघावी, कईं शिक्षा प्राप्त, कईं बुद्धिमान औत्पात्तिकी आदि बुद्धियों से सम्पन्न तथा कईं सूत्रों और अर्थों के पूर्णरूप से निश्चयज्ञ होते हैं । अतः दूसरे अनगार मुझ से कोई प्रश्न न पूछ बैठे, इस प्रकार की आशंका करते हए वे वहाँ नहीं जाते। सूत्र-७५४,७५५
(आर्द्रक मुनि ने कहा) भगवान महावीर अकामकारी नहीं है और न ही वे बालकों की तरह कार्यकारी हैं। वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते, फिर अन्य भय से करने की तो बात ही कहाँ ? भगवान प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे इस जगत में आर्य लोगों के लिए तथा अपने तीर्थंकर नामकर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं । सर्वज्ञ भगवान महावीर वहाँ जाकर अथवा न जाकर समभाव से धर्मोपदेश करते हैं । परन्तु अनार्यलोग दर्शन भ्रष्ट होते हैं, इसलिए उनके पास नहीं जाते । सूत्र - ७५६
(गोशालक ने कहा-) जैसे लाभार्थी वणिक क्रय-विक्रय से आय के हेतु संग करता है, यही उपमा श्रमण के लिए है; ये ही वितर्क मेरी बुद्धि में उठते हैं । सूत्र - ७५७,७५८
(आर्द्रक मुनि ने कहा) भगवान महावीर नवीन कर्म (बन्ध) नहीं करते, अपितु वे पुराने कर्मों का क्षय करते हैं । (क्योंकि) वे स्वयं यह कहते हैं कि प्राणी कुबुद्धि का त्याग करके ही मोक्ष को प्राप्त करता है । इसी दृष्टि से इसे ब्रह्म-पद कहा गया है । उसी मोक्ष के लाभार्थी भगवान महावीर हैं, ऐसा मैं कहता हूँ।
(ओर हे गोशालक !) वणिक् प्राणीसमूह का आरम्भ करते हैं, तथा परिग्रह पर ममत्व भी रखते हैं, एवं वे ज्ञातिजनों के साथ ममत्वयुक्त संयोग नहीं छोड़ते हुए, आय के हेतु दूसरों से भी संग करते हैं । सूत्र - ७५९,७६०
वणिक् धन के अन्वेषक और मैथुन में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन की प्राप्ति के लिए इधर-उधर जाते रहते हैं । अतः हम तो ऐसे वणिकों को काम-भोगों में अत्यधिक आसक्त, प्रेम के रस में गद्ध और अनार्य कहते हैं । वणिक् आरम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग नहीं करते, उन्हीं में निरन्तर बंधे हुए रहते हैं और आत्मा को दण्ड देते रहते हैं । उनका वह उदय, जिससे आप उदय बता रहे हैं, वस्तुतः उदय नहीं है बल्कि वह चातुर्गतिक अनन्त संसार या दुःख के लिए होता है । वह उदय है ही नहीं, होता भी नहीं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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