Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 90
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक इसके पश्चात् भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के विषय में श्री तीर्थंकर भगवान ने कहा है । जैसे कि-गोह, नेवला, सेह, सरट, सल्लक, सरथ, खोर, गृहकोकिला, विषम्भरा, मूषक, मंगुस, पदलातिक, विडालिक, जोध और चातुष्पद आदि भुजपरिसर्प हैं । उन जीवों की उत्पत्ति भी अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है । उरःपरिसर्प जीवों के समान ये जीव भी स्त्री-पुरुष संयोग से उत्पन्न होते हैं । शेष सब बातें पूर्ववत् । ये जीव भी अपने किये हुए आहार को पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं । गोह से लेकर चातुष्पद तक उन अनेक जाति वाले भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों के नाना वर्णादि को लेकर अनेक शरीर होते हैं, ऐसा कहा है। इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के विषय में कहा है। जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी तथा विततपक्षी आदि खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय होते हैं । उन प्राणियों की उत्पत्ति भी उत्पत्ति के योग्य बीज और अवकाश के अनुसार होती है और स्त्री-पुरुष के संयोग से इनकी उत्पत्ति होती है । शेष बातें उर:परिसर्प के समान जानना । वे प्राणी गर्भ से नीकलकर बाल्यावस्था प्राप्त होने पर माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं । फिर क्रमश: बड़े होकर वनस्पतिकाय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं । इन आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के और भी अनेक प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं अवयवरचना वाले शरीर होते हैं, ऐसा कहा है। सूत्र-६९० इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने निरूपण किया है कि इस जगत में कईं प्राणी नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं । वे अनेक प्रकार की योनियों में स्थित रहते हैं, संवर्द्धन पाते हैं । वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार उन कर्मों के ही प्रभाव से विविध योनियों में आकर उत्पन्न होते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार के त्रस स्थावर-पुद्गलों के सचित्त या अचित्त शरीरों में उनके आश्रित होकर रहते हैं । वे जीव अनेकविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस-स्थावर योनियों से उत्पन्न, और उन्ही के आश्रित रहने वाले प्राणियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, विविध संस्थान वाले और भी अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, ऐसा कहा है । इसी प्रकार विष्ठा और मूत्र आदि में कुरूप विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं और गाय भैंस आदि के शरीर में चर्मकीट उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात श्रीतीर्थंकरदेव ने अन्यान्य प्राणियों के आहारादि का प्रतिपादन किया है । इस जगत में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर कर्म से प्रेरित वायुयोनिक जीव अप्काय में आते हैं । वे प्राणी वहाँ अप्काय में आकर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अप्कायरूप में उत्पन्न होते हैं । वह अप्काय वायु से बना हुआ या वायु से संग्रह किया हुआ अथवा वायु के द्वारा धारण किया हुआ होता है । अतः वह ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे और तीरछा वायु हो तो तीरछा जाता है । उस अप्काय के कुछ नाम ये हैं-ओस, हिम, मिहिका, ओला, हरतनु और शुद्ध जल | वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियोंके स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वीआदिके शरीरों का भी आहार करते हैं । तथा पूर्वभुक्त त्रस स्थावरीय आहार को पचाकर अपने रूपमें परिणत कर लेते हैं । उन त्रस-स्थावरयोनि समुत्पन्न जलकायिक जीवों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान, आकार-प्राकार आदि के और भी अनेक शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। इस जगत में कितने ही प्राणी जल से उत्पन्न होते हैं, जल में ही रहते हैं और जल में ही बढ़ते हैं । वे अपने पूर्वकृतकर्म के प्रभाव से जल में जलरूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन त्रस-स्थावर योनिको जलों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं तथा उन्हें पचाकर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उस त्रस-स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले दूसरे शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है। इस जगत में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्मों के वशीभूत होकर आते हैं । तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 90

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