Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक माता, जिन अनेक प्रकार की सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव उसके एकदेश का ओज आहार करते हैं क्रमशः वृद्धि एवं परिपाक को प्राप्त वे जीव माता के शरीर से नीकलते हए कोई स्त्रीरूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव बालक होकर माता के दूध और घी का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े हो कर वे जीव चावल, कुल्माष एवं त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । फिर वे उनके शरीर को अचित्त करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज, आर्य और म्लेच्छ आदि अनेकविध मनुष्यों के शरीर नानावर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श एवं संस्थान वाले नाना पुद्गलों से रचित होते हैं । ऐसा कहा है। सूत्र-६८९
इसके पश्चात् तीर्थंकरदेव ने पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जलचरों का वर्णन किया है, जैसे कि-मत्स्यों से लेकर सुंसुमार तक के जीव पंचेन्द्रियजलचर तिर्यंच हैं । वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्व-स्वकर्मानुसार पूर्वोक्त प्रकार के गर्भमें उत्पन्न होते हैं । फिर वे जीव गर्भमें माता के आहार के एकदेश को ओज-आहाररूपमें ग्रहण करते हैं । इस प्रकार वे क्रमशः वृद्धिप्राप्त होकर गर्भ के परिपक्व होने पर माता की काया से बाहर नीकलकर कोई अण्डे के रूपमें होते हैं, कोई पोत के रूपमें होते हैं। जब वह अण्डा फूटता है तो कोई स्त्री रूपमें, कोई पुरुष रूपमें और कोई नपुंसक रूपमें उत्पन्न होते हैं । वे जलचर जीव बाल्यावस्था आने पर जल के स्नेह का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े होने पर वनस्पति-काय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं, एवं उन्हें पचाकर क्रमशः अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों के दूसरे भी नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, नाना आकृति एवं अवयव रचना वाले तथा नाना पुद्गलों से रचित अनेक शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने स्थलचर चतुष्पद तिर्यंचपंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में बताया है, जैसे कि-कोई स्थलचर चौपाये पशु एक खुर वाले, कईं दो खुर वाले, कईं गण्डीपद और कईं नखयुक्त पद वाले होते हैं । वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पन्न होते हैं । स्त्री-पुरुष का कर्मानुसार परस्पर संयोग होने पर वे जीव चतुष्पद स्थलचरजाति के गर्भ में आते हैं । वे माता और पिता दोनों के स्नेह का पहले आहार करते हैं । उस गर्भ में वे जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में होते हैं । वे जीव माता के ओज और पिता के शुक्र का आहार करते हैं । शेष सब बातें पूर्ववत् । इनमें कोई स्त्री के रूप में, कभी नर के रूप में और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव बाल्यावस्था में माता के दूध और धृत का आहार करते हैं । बड़े होकर वे वनस्पतिकाय का तथा दूसरे त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे प्राणी पृथ्वी आदिके शरीर का भी आहार करते हैं । फिर वे आहार किये हुए पदार्थोंको पचाकर अपने शरीर के रूपमें परिणत करते हैं । उन स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक चतुष्पद जीवों के विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं रचना वाले दूसरे अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है
इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने उरपरिसर्प, स्थलचर, पंचेन्द्रिय, तिर्यंचयोनिक जीवों का वर्णन किया है । जैसे कि सर्प, अजगर, आशालिक और महोरग आदि उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव हैं । वे जीव अपने-अपने उत्पत्तियोग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं । इन प्राणियों में भी स्त्री और पुरुष का परस्पर मैथुन नामक संयोग होता है, उस संयोग के होने पर कर्मप्रेरित प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपनीअपनी नियत योनि में उत्पन्न होते हैं । शेष बातें पूर्ववत् । उनमें से कईं अंडा देते हैं, कईं बच्चा उत्पन्न करते हैं । उस अंडे के फूट जाने पर उसमें से कभी स्त्री होती है, कभी नर पैदा होता है और कभी नपुंसक होता है । वे बीज बाल्या-वस्था में वायुकाय का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पतिकाय तथा अन्य त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी के शरीर से लेकर वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं, फिर उन्हें पचाकर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उन उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकृति एवं संस्थान वाले अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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