Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक रहती और उसीमें बढ़ती हैं । वे उदकयोनिक वनस्पति जीव पूर्वकृत कर्मोदयवश-कर्मों के कारण ही उनमें आते हैं
और नाना प्रकार की योनियों वाले उदकों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना प्रकार के जाति वाले फलों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन जलयोनिक वृक्षों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे जीव स्वकर्मोदयवश ही जलयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं । पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेदों के समान ही यहाँ जलयोनिक वृक्षों के भी चार भेदों के भी प्रत्येक के चार-चार आलापक कहने चाहिए।
इस वनस्पतिकायजगत में कई जीव उदकयोनिक होते हैं, जो जलमें उत्पन्न होते हैं, वहीं रहते और वहीं संवृद्धि पाते हैं । वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण ही तथारूप वनस्पतिकाय में आते हैं और वहाँ वे अनेक प्रकार की योनि के उदकों में उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बक, हड, कसेरुक, कच्छभाणितक, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, भिस, मणाल, पुष्कर, पुष्कराक्षिभग के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन जलयोनिक वनस्पतियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान से युक्त एवं नानाविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे सभी जीव स्वकुतकर्मानुसार ही इन जीवों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है। इसमें केवल एक ही आलापक होता है। सूत्र-६८७
इस वनस्पतिकायिक जगत में कईं जीव-पृथ्वीयोनिक वृक्षों में, कईं वृक्षयोनिक वृक्षों में, कईं वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कईं वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में, कईं अध्यारूह योनिक अध्यारूहों में, कईं अध्यारूहयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कईं पृथ्वीयोनिक तृणों में, कईं तृणयोनिक तृणों में, कई तृणयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, इसी तरह औषधि और हरितों के सम्बन्ध में तीन-तीन आलापक कहे गए हैं, कईं पृथ्वीयोनिक आय, काय से लेकर कूट तक के वनस्पतिकायिक अवयवों में, कईं उदकयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, तथा वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीज तक के अवयवों में, इसी तरह अध्यारूहों, तृणों,
औषधियों और हरितों में (पूर्वोक्तवत तीन-तीन आलापक हैं) तथा कईं उदकयोनिक उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभगों में त्रस-प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं।
वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के, जलयोनिक वृक्षों के, अध्यारूहयोनिक वृक्षों के, एवं तणयोनिक, औषधियोनिक, हारितयोनिक वृक्षों के तथा वृक्ष, अध्यारूह, तृण, औषधि, हरित, एवं मूल से लेकर बीज तक के, तथा आय, काय से लेकर कूट वनस्पति तक के एवं उदक अवक से लेकर पुष्कराक्षिभग वनस्पति तक के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन वृक्षयोनिक, अध्यारूहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, मूलयोनिक, कन्दयोनिक से लेकर बीजयोनिक पर्यन्त तथा आय, काय से लेकर कूटयोनिकपर्यन्त, एवं अवक अवकयोनि से लेकर पुष्कराक्षिभगयोनिकपर्यन्त त्रसजीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । ये सभी जीव स्वस्वकर्मानुसार ही अमुक-अमुक रूप में अमुक योनि में उत्पन्न होते हैं । ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। सूत्र - ६८८
इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने मनुष्यों का स्वरूप बतलाया है । जैसे कि-कईं मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते हैं, कईं अकर्मभूमि में और कईं अन्तर्वीपों में उत्पन्न होते हैं । कोई आर्य है, कोई म्लेच्छ । उन जीवों की उत्पत्ति अपने अपने बीज और अपने-अपने अवकाश के अनुसार होती है । इस उत्पत्ति के कारणरूप पूर्वकर्मनिर्मित योनि में स्त्री पुरुष का मैथुनहेतुक संयोग उत्पन्न होता है । दोनों के स्नेह का आहार करते हैं, तत्पश्चात् वे जीव वहाँ स्त्री-रूप में, पुरुषरूप में और नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं । सर्वप्रथम वे जीव माता के रज और पिता के वीर्य का, जो परस्पर मिले हुए कलुष और धृणित होते हैं, ओज-आहार करते हैं । उसके पश्चात्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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