Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक गृहपतिपुत्रों के कुण्डल, मणि, या मोती आदि को स्वयं चूरा लेता है, या दूसरों से चोरी करवाता है, अथवा जो चोरी करता है उसे अच्छा समझता है। (११) कोई व्यक्ति स्वकृत दुष्कर्मों के फल का जरा भी विचार नहीं करता । वह अकारण ही श्रमणों या माहनों के छत्र, दण्ड, कमण्डलु, भण्डोपकरणों से लेकर चर्मछेदनक एवं चर्मकोश तक साधनों का स्वयं अपहरण कर लेता है, औरों से अपहरण करवाता है और जो अपहरण करता है, उसे अच्छा समझता है । इस कारण जगत में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है। (१२) ऐसा कोई व्यक्ति श्रमण और माहन को देखकर उनके साथ अनेक प्रकार के पापमय व्यवहार करता है और उस महान पापकर्म के कारण उसकी प्रसिद्धि महापापी के रूप में हो जाती है। अथवा वह चुटकी बजाता है अथवा कठोर वचन बोलता है । भिक्षाकाल में भी अगर साधु उसके यहाँ दूसरे भिक्षुओं के पीछे भिक्षा के लिए प्रवेश करता है, तो भी वह साध को स्वयं आहारादि नहीं देता, दसरा कोई देता हो तो उसे यह कहकर भिक्षा देने से रोक देता है-ये पाखण्डी बोझा ढोते थे या नीच कर्म करते थे, कुटुम्ब के या बोझे के भार से (घबराए हुए) थे । वे बड़े आलसी हैं, ये शूद्र हैं, दरिद्र हैं, (सुखलिप्सा से) ये श्रमण एवं प्रव्रजित हो गए हैं। वे लोग इस जीवन को जो वस्तुतः धिग्जीवन है, उलटे इसकी प्रशंसा करते हैं । वे साधुद्रोहजीवी मूढ़ परलोक के लिए भी कुछ भी साधन नहीं करते; वे दुःख पाते हैं, वे शोक पाते हैं, वे दुःख, शोक, पश्चात्ताप करते हैं, वे क्लेश पाते हैं, वे पीड़ावश छाती-माथा कूटते हैं, सन्ताप पाते हैं, वे दुःख, शोक, पश्चात्ताप, क्लेश, पीड़ावश सिर पीटने आदि की क्रिया, संताप, वध, बन्धन आदि परिक्लेशों से निवृत्त नहीं होते । वे महारम्भ और महासमारम्भ नाना प्रकार के पापकर्म जनक कुकृत्य करके उत्तमोत्तम मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हैं। जैसे कि-वह आहार के समय आहार का, पीने के समय पेय पदार्थों का, वस्त्र परिधान के समय वस्त्रों का, आवास के समय आवासस्थान का, शयन के समय शयनीय पदार्थों का उपभोग करते हैं । वह प्रातःकाल, मध्याह्न काल और सायंकाल स्नान करते हैं फिर देव-पूजा के रूप में बलिकर्म करते चढ़ावा चढ़ाते हैं, देवता की आरती करके मंगल के लिए स्वर्ण, चन्दन, दहीं, अक्षत और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थों का स्पर्श करते हैं, फिर प्रायश्चित्त के लिए शान्तिकर्म करते हैं । तत्पश्चात् सशीर्ष स्नान करके कण्ठ में माला धारण करते हैं । वह मणियों और सोने को अंगों में पहनता है, सिर पर पुष्पमाला से युक्त मुकुट धारण करता है । वह शरीर से सुडौल एवं हृष्टपुष्ट होता है । वह कमर में करधनी तथा वक्षःस्थल पर फूलों की माला पहनता है । बिलकुल नया और स्वच्छ वस्त्र पहनता है । चन्दन का लेप करता है । इस प्रकार सुसज्जित होकर अत्यन्त ऊंचे विशाल प्रासाद में जाता है । वहाँ वह बहुत बड़े भव्य सिंहासन पर बैठता है । वहाँ युवतियाँ उसे घेर लेती हैं । वहाँ सारी रातभर दीपक आदि का प्रकाश जगमगाता रहता है । फिर वहाँ बड़े जोर से नाच, गान, वाद्य, वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग तथा करताल आदि की ध्वनि लगती है । इस प्रकार उत्तमोत्तम मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करता हुआ वह अपना जीवन व्यतीत करता है । वह व्यक्ति जब किसी एक नौकर को आज्ञा देता है तो चार मनुष्य बिना कहे ही वहाँ आकर सामने खड़े हो जाते हैं, (और हाथ जोड़ कर पूछते हैं) हे प्रिय! कहिए, हम आपकी क्या सेवा करें? क्या लाएं, क्या भेंट करें? क्या-क्या कार्य आपको क्या हीतकर है, क्या इष्ट है? आपके मुख को कौन-सी वस्त स्वादिष्ट है? बताइ । उस पुरुष को इस प्रकार सुखोपभोगमग्न देखकर अनार्य यों कहते हैं-यह पुरुष तो सचमुच देव है । यह पुरुष तो देवों से भी श्रेष्ठ है । यह तो देवों का-सा जीवन जी रहा है । इसके आश्रय से अन्य लोग भी आनन्दपूर्वक जीते हैं । किन्तु इस प्रकार उसी व्यक्ति को देखकर आर्य पुरुष कहते हैं-यह पुरुष तो अत्यन्त क्रूर कर्मों में प्रवृत्त है, अत्यन्त धूर्त है, अपने शरीर की यह बहुत रक्षा करता है, यह दिशावर्ती नरक के कृष्णपक्षी नारकों में उत्पन्न होगा । यह भविष्य में दुर्लभबोधि प्राणी होगा। कईं मूढ़ जीव मोक्ष के लिए उद्यत होकर भी इसको पाने के लिए लालायित हो जाते हैं । कईं गृहस्थ भी इस स्थान (जीवन) को पाने की लालसा करते रहते हैं । कईं अत्यन्त विषयसुखान्ध या तृष्णान्ध मनुष्य भी इस मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 77

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114