Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक स्वच्छ होता है । कमल का पत्ता जैसे जल के लेप से रहित होता है, वैसे ही ये भी कर्म मल के लेप से दूर रहते हैं, वे कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त-सुरक्षित रखते हैं। जैसे आकाश में पक्षी स्वतन्त्र विहारी होता है, वैसे ही वे महात्मा समस्त ममत्वबन्धनों से रहित होकर आध्यात्मिक आकाश में स्वतन्त्रविहारी होते हैं । जैसे गेंड़े का एक ही सींग होता है, वैसे ही वे महात्मा भाव से राग-द्वेष रहित अकेले ही होते हैं । वे भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त होते हैं। जैसे हाथी वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि कषायों को निर्मूल करने में शूरवीर एवं दक्ष होते हैं। जैसे बैल भारवहन में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि संयम भारवहन में समर्थ होते हैं । जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते नहीं।
जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता वैसे ही वे महामनि कष्टों, उपसर्गों और भयों से नहीं काँपते । वे समद्र की तरह गम्भीर होते हैं, उनकी प्रकृति चन्द्रमा के समान सौम्य एवं शीतल होती है; उत्तम जाति के सोने में जैसे मल नहीं लगता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता । वे पृथ्वी के समान सभी स्पर्श सहन करते हैं।
अच्छी तरह होम की हुई अग्नि के समान वे अपने तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं । उन अनगार भगवंतों के लिए किसी भी जगह प्रतिबंध नहीं होता । प्रतिबंध चार प्रकार से होता है, जैसे कि-अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर
आदि पक्षियों से, पोतज, अवग्रहिक तथा औपग्रहिक होता है । वे जिस-जिस दिशा में विचरण करना चाहते हैं, उस-उस दिशा में अप्रतिबद्ध, शुचिभूत, अपनी त्यागवृत्ति के अनुरूप अणु ग्रन्थ से भी दूर होकर संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं।
उन अनगार भगवंतों की इस प्रकार की संयम यात्रा के निर्वाहार्थ यह वृत्ति होती है, जैसे कि-वे चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दशभक्त अर्द्ध मासिक भक्त, मासिक भक्त, द्विमासिक, तप, त्रिमासिक तप, चातुर्मासिक तप, पंचमासिक तप, एवं षाण्मासिक तप, इसके अतिरिक्त भी कोई कोई निम्नोक्त अभिग्रहों के धारक भी होते हैं । जैसे कई उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक होते हैं, कईं उत्क्षिप्त और निक्षिप्त दोनों प्रकार की चर्या वाले होते हैं, कोई अन्त, प्रान्त, रूक्ष, सामुदानिक, संसृष्ट, असंसृष्ट आहार लेते हैं, कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो, उसी हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई देखे हुए आहार को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई पूछकर और कोई पछे बिना आहार ग्रहण करते हैं । कोई तुच्छ और कोई अतुच्छ भिक्षा ग्रहण करते हैं । कोई अज्ञात घरों से आहार लेते हैं, कोई आहार के बिना ग्लान होने
र ग्रहण करते हैं। कोई दाता के निकट रखा हआ, कई दत्ति की संख्या करके, कोई परिमित, और कोई शुद्ध आहार की गवेषणा करके आहार लेते हैं, वे अन्ताहारी, प्रान्ताहारी होते हैं, कई अरसाहारी एवं कई विरसाहारी होते हैं, कईं रूखा-सूखा आहार करने वाले तथा कईं तुच्छ आहार करने वाले होते हैं। कोई अन्त या प्रान्त आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं।
कोई पुरिमड्ड तप करते हैं, कोई आयम्बिल तपश्चरण करते हैं, कोई निर्विगई तप करते हैं, वे अधिक मात्रा में सरस आहार का सेवन नहीं करते, कईं कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं, कईं प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्गस्थ रहते हैं, कईं उत्कट आसन से बैठते हैं, कईं आसनयुक्त भूमि पर ही बैठते हैं, कईं वीरासन लगाकर बैठते हैं, कईं डंडे की तरह आयत-लम्बे होकर लेटते हैं, कईं लगंडशायी होते हैं । कईं बाह्य प्रावरण से रहित होकर रहते हैं, कई कायोत्सर्ग में एक जगह स्थित होकर रहते हैं, कईं शरीर को नहीं खुजलाते, वे थूक को भी बाहर नहीं फेंकते । वे सिर के केश, मूंछ, दाढ़ी, रोम और नख की काँटछाँट नहीं करते, तथा अपने सारे शरीर का परिकर्म नहीं करते ।
वे महात्मा इस प्रकार उग्रविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं । रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं । वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान करके उसे पूर्ण करते हैं । अनशन को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा नग्नभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्तधावन, छाते और जूते का उपयोग न करना, भूमिशयन, काष्ठफलकशयन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्य-वास, भिक्षार्थ परगृह-प्रवेश आदि कार्य किये जाते हैं, तथा जिसके लिए लाभ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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