Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक और अलाभ मान-अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना, मार-पीट, धमकियाँ तथा ऊंची-नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बाईस प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं, उस उद्देश्य की आराधना कर लेते हैं । उस उद्देश्य की आराधना करके अन्तिम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं । केवलज्ञान-केवलदर्शन उपार्जित करने के पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं।
र का अन्त कर लेते हैं । दूसरे कईं महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । जैसे कि-महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महापराक्रमयुक्त, महायशस्वी, महान् बलशाली, महाप्रभावशाली और महासुखदायी जो देवलोक है, उनमें वे देवरूप में उत्पन्न होते हैं, वे देव महाऋद्धि सम्पन्न, महाद्युति सम्पन्न यावत् महासुख सम्पन्न होते हैं । उनके वक्षः स्थल हारों से सुशोभित रहते हैं, उनकी भुजाओं में कड़े, बाजूबन्द आदि आभूषण पहने होते हैं, उनके कपोलों पर अंगद और कुण्डल लटकते रहते हैं । वे कानों में कर्णफूल धारण किये होते हैं । उनके हाथ विचित्र आभूषणों से युक्त रहते हैं | वे सिर पर विचित्र मालाओं से सुशोभित मुकुट धारण करते हैं । वे कल्याणकारी तथा सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते हैं, तथा कल्याणमयी श्रेष्ठ माला और अंगलेपन धारण करते हैं । उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है । वे लम्बी वनमालाओं को धारण करने वाले देव होते हैं । वे अपने दिव्यरूप, दिव्यवर्ण, दिव्यगन्ध, दिव्यस्पर्श, दिव्यसंहनन, दिव्य संस्थान तथा दिव्यऋद्धि, द्युति, प्रभा, छाया, अर्चा, तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हुए, चमकाते हुए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं।
यह (द्वितीय) स्थान आर्य है, यावत् यह समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है । यह स्थान एकान्त सम्यक् और बहुत अच्छा है। सूत्र - ६७१
__ इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग इस प्रकार है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य होते हैं, जैसे कि-वे अल्प ईच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं । वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हुए जीवनयापन करते हैं | वे सुशील, सुव्रती, सुगमता से प्रसन्न हो जाने वाले और साधु होते हैं । एक ओर वे किसी प्राणातिपात से जीवनभर विरत होते हैं तथा दूसरी ओर किसी प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते, (इसी प्रकार मृषावाद, आदि से) निवृत्त और कथंचित् अनिवृत्त होते हैं । ये और इसी प्रकार के अन्य बोधिनाशक एवं अन्य प्राणियों को परिताप देने वाले जो सावद्यकर्म हैं उनसे निवृत्त होते हैं, दूसरी ओर कतिपय कर्मों से वे निवृत्त नहीं होते।
इस मिश्रस्थान के अधिकारी श्रमणोपासक होते हैं, जो जीव और अजीव के स्वरूप के ज्ञाता पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध किये हए, तथा आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं । वे श्रावक असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यश, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवगणों और इन के द्वारा दबाव डाले जाने पर भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते । वे श्रावक इस निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित, निष्कांक्षित एवं निर्विचिकित्स होते हैं । वे सूत्रार्थ के ज्ञाता, उसे समझे हुए और गुरु से पूछे हुए होते हैं, सूत्रार्थ का निश्चय किये हुए तथा भलीभाँति अधिगत किये होते हैं । उनकी हड्डियाँ और रगें उसके प्रति अनुराग से रंजित होती हैं । वे श्रावक कहते हैं-'यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सार्थक है, परमार्थ है, शेष सब अनर्थक है। वे स्फटिक के समान स्वच्छ और निर्मल हृदय वाले होते हैं, उनके घर के द्वार भी खुले रहते हैं; उन्हें राजा के अन्तःपुर के समान दूसरे के घर में प्रवेश अप्रीतिकर लगता है, वे श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा आदि पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए तथा श्रमण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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