Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 15
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - १२८ गर्म-जल एवं गर्म-भोजन करने वाले, धर्म में स्थित एवं लज्जित मुनि के लिए राजा का संसर्ग अनुचित है। इससे तथागत भी असमाधि पाता है। सूत्र - १२९ कलह करने वाले, तिरस्कारपूर्ण और कठोर-वचन बोलने वाले भिक्षु का बहु/परम अर्थ नष्ट हो जाता है । इसलिए पण्डित कलह न करे । सूत्र-१३० शीतोदक (सचित्त-जल) से जुगुप्सा करने वाला, अप्रतिज्ञ, निष्काम-प्रवृत्ति से दूर और जो गृह-मत्त भोजन नहीं करे, उसके लिए सामयिक कथित है। सूत्र - १३१ जीवन संस्कृत नहीं कहा गया है, तथापि अज्ञानी धृष्टता करता है । अज्ञ स्वयं को पाप से भरता जाता है, यह सोचकर मुनि मद नहीं करता है। सूत्र - १३२ माया एवं मोह से आच्छादित प्रजा ईच्छाओं के कारण सहजतः नष्ट होती है, किन्तु ज्ञानी कठिनाई से नष्ट होता है। वह प्रशंसा, निन्दात्मक-वचन सहन करता है। सूत्र-१३३, १३४ जैसे अपराजित जुआरी कुशल-पासों से जूआ खेलता हुआ कृत् (दाव) को ही स्वीकार करता है, कलि, त्रेता या द्वापर को नहीं। इसी प्रकार लोक में त्राता द्वारा जो अनुत्तर-धर्म कथित है उसे ग्रहण करे । पण्डित-पुरुष शेष को छोड़कर कृत् को ही स्वीकारता है । यही हितकर है। सूत्र - १३५ यह मेरे द्वारा अनुश्रुत है कि ग्राम-धर्म (मैथुन) सब विषयों में प्रधान कहा गया है । जिससे विरत पुरुष ही काश्यप-धर्म का आचरण करते हैं। सूत्र-१३६ जो महान् महर्षि, ज्ञाता, महावीर के कथित (धर्म) का आचरण करते हैं, वे उत्थित हैं, वे समुचित हैं, वे एक दूसरे को धर्म में प्रेरित करते हैं। सूत्र-१३७ पूर्वकाल में भुक्त भोगों को मत देखो । उपधि को समाप्त करने की अभिकांक्षा करो । जो विषयों के प्रति नत नहीं है, वे समाधि को जानते हैं। सूत्र - १३८ संयत-पुरुष कायिक, प्राश्निक और सम्प्रसारक न बने । अनुत्तर धर्म को जानकर कृत-कार्यों के प्रति ममत्व न करे। सूत्र - १३९ ज्ञानी-पुरुष अपने दोषों को न ढके, अपनी प्रशंसा न करे, उत्कर्ष प्रकाश न करे । संयम रखने वाले प्रणतपुरुष को ही सुविवेक मिलता है। सूत्र - १४० मुनि अनासक्त, स्वहित, सुसंवत, धर्मार्थी, उपधानवीर्य/तप-पराक्रमी एवं जितेन्द्रिय होकर विचरण करे, क्योंकि आत्महित दुःख से प्राप्त होता है, दुःसाध्य है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15

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