Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 69
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक खिलाए, और न ऐसा सदोष आहार-सेवन करने वाले को अच्छा समझे । इस प्रकार के सदोष आहारत्याग से वह भिक्षु महान कर्मों के बन्धन से दूर रहता है यावत् पापकर्मों से विरत रहता है। __ यदि साधु यह जान जाए कि गृहस्थ ने जिनके लिए आहार बनाया है वे साधु नहीं, अपितु दूसरे हैं; जैसे कि गृहस्थ ने अपने पुत्रों के लिए अथवा पुत्रियों, पुत्रवधूओं के लिए, धाय के लिए, ज्ञातिजनों के लिए, राजन्यों, दास, दासी, कर्मकर, कर्मकरी तथा अतिथि के लिए, या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा प्रातः नाश्ते के लिए आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको भोजन देने के लिए उसने आहार का अपने पास संचय किया है; ऐसी स्थिति में साधु दूसरे के द्वारा दूसरों के लिए बनाये हुए तथा उद्गम, उत्पाद और एषणा दोष से रहित शुद्ध एवं अग्नि आदि शस्त्र द्वारा परिणत होने से प्रासुक बने हुए एवं अग्नि आदि शस्त्रों द्वारा निर्जीव किये हुए अहिंसक तथा एषणा से प्राप्त, तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा से प्राप्त, गीतार्थ के द्वारा ग्राह्य कारण से साधु के लिए ग्राह्य प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए सकी धूरी में दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये गए लेप के समान केवल संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ग्राह्य आहार का बिल में प्रवेश करते हए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही सेवन करे । जैसे कि वह भिक्षु अन्नकाल में अन्न का, पानकाल में पान का, वस्त्रकाल में वस्त्र का, मकान समय में मकान का, शयनकाल में शय्या का ग्रहण एवं सेवन करता है। वह भिक्षु मात्रा एवं विधि का ज्ञाता होकर किसी दिशा या अनुदिशा में पहुँचकर, धर्म का व्याख्यान करे, विभाग करके प्रतिपादन करे, धर्म के फल का कीर्तन करे । साधु उपस्थित अथवा अनुपस्थित श्रोताओं को धर्म का प्रतिपादन करे । साधु के लिए विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव तथा समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्व के प्रति अहिंसा आदि धर्मों के अनुरूप विशिष्ट चिन्तन करके धर्मोपदेश दे । धर्मोपदेश करता हुआ साधु अन्न के लिए, पान के लिए, सुन्दर वस्त्र-प्राप्ति के लिए, सुन्दर आवासस्थान के लिए, विशिष्ट शयनीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए धर्मोपदेश न करे, तथा दूसरे विविध प्रकार के कामभोगों की प्राप्ति के लिए धर्म कथा न करे । प्रसन्नता से धर्मोपदेश करे । कर्मों की निर्जरा के उद्देश्य के सिवाय अन्य किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे इस जगत में उस भिक्षु से धर्म को सूनकर, उस पर विचार करके सम्यक् रूप से उत्थित वीर पुरुष ही इस आर्हत धर्म में उपस्थित होते हैं । जो वीर साधक उस भिक्षु से धर्म को सून-समझ कर सम्यक् प्रकार से मुनिधर्म का के लिए उद्यत होते हए इस धर्म में दीक्षित होते हैं, वे सर्वोपगत हो जाते हैं, वे सर्वोपरत हो जाते हैं, वे सर्वोपशान्त हो जाते हैं, एवं वे समस्त कर्मक्षय करके परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं । यह मैं कहता हूँ । इस प्रकार वह भिक्षु धर्मार्थी धर्म का ज्ञाता और नियाग को प्राप्त होता है । ऐसा भिक्षु, जैसा कि पहले कहा गया था, पूर्वोक्त पुरुषों में से पाँचवा पुरुष है । वह श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान निर्वाण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके । इस प्रकार का भिक्षु कर्म का परिज्ञाता, संग का परिज्ञाता, तथा गृहवास का परिज्ञाता हो जाता है । वह उपशान्त, समित, सहित एवं सदैव यतनाशील होता है । उस साधक को इस प्रकार कहा जा सकता है, जैसे कि-वह श्रमण है, या माहन है, अथवा वह क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, तथा महर्षि है, अथवा मुनि, कृती तथा विद्वान है, अथवा भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी चरण-करण के रहस्य का पारगामी है । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 69

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