Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक परन्तु मेघावी साधक को यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाह्य वस्तु है ही, इनसे भी निकटतर सम्बन्धी ये सब हैं, जिन पर प्राणी ममत्व करता है, जैसे कि-ये मेरे हाथ हैं, ये मेरे पैर हैं, ये मेरी बाँहें हैं, ये मेरी जाँ हैं, यह मेरा मस्तक है, यह मेरा शील है, इसी तरह मेरी आयु, मेरा बल, मेरा वर्ण, मेरी चमड़ी, मेरी छाया, मेरे कान, मेरे नेत्र, मेरी नासिका, मेरी जिह्वा, मेरी स्पर्शेन्द्रिय, इस प्रकार प्राणी 'मेरा मेरा' करता है । आयु अधिक होने पर ये सब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं । जैसे कि आयु से, बल से, वर्ण से, त्वचा से, कान से तथा स्पर्शेन्द्रियपर्यन्त सभी शरीर सम्बन्धी पदार्थों से क्षीण-हीन हो जाता है । उसकी सुघटित दृढ़ सन्धियाँ ढीली हो जाती है, उसके शरीर की चमड़ी सिकुड़ कर नसों के जाल से वेष्टित हो जाती है । उसके काले केश सफेद हो जाते हैं, यह जो आहार से उपचित औदारिक शरीर है, वह भी क्रमशः अवधि पूर्ण होने पर छोड़ देना पड़ेगा । यह जान कर भिक्षाचर्या स्वीकार करने हेतु प्रव्रज्या के लिए समुद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, जैसे कि-लोक जीवरूप है और अजीवरूप है, तथा त्रसरूप है और स्थावररूप है। सूत्र- ६४६
इस लोक में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, कईं श्रमण और ब्राह्मण भी आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, वे गृहस्थ तथा श्रमण और ब्राह्मण इन त्रस और स्थावर प्राणियों का स्वयं आरम्भ करते हैं, दूसरे के द्वारा भी आरम्भ कराते हैं और आरम्भ करते हुए अन्य व्यक्ति को अच्छा मानते-अनुमोदन करते हैं । इस जगत में गृहस्थ तथा कईं श्रमण एवं माहन भी आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं । ये गृहस्थ तथा श्रमण और माहन सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के कामभोगों को स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरे से भी ग्रहण कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करते हैं।
इस जगत में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, कईं श्रमण और ब्राह्मण भी आरम्भ परिग्रह से युक्त होते हैं । मैं आरम्भ और परिग्रह से रहित हूँ | जो गृहस्थ हैं, वे आरम्भ और परिग्रह-सहित हैं ही, कोई-कोई श्रमण तथा माहन भी आरम्भ-परिग्रह में लिप्त हैं । अतः आरम्भ-परिग्रह युक्त पूर्वोक्त गृहस्थ वर्ग एवं श्रमण-माहनों के आश्रय से मैं ब्रह्मचर्य का आचरण करूँगा । (प्रश्न-) आरम्भ-परिग्रह-सहित रहने वाले गृहस्थवर्ग और कतिपय श्रमण-ब्राह्मणों के निश्राय में ही जब रहना है, तब फिर इनका त्याग करने का क्या कारण है ? (उत्तर-) गृहस्थ जैसे पहले आरम्भ-परिग्रह-सहित होते हैं, वैसे पीछे भी होते हैं, एवं कोई-कोई श्रमण माहन प्रव्रज्या धारण करने से पूर्व आरम्भ-परिग्रहयुक्त होते हैं, बाद में भी लिप्त रहते हैं । ये लोग सावध आरम्भ परिग्रह से निवृत्त नहीं है, अतः शुद्ध संयम का आचरण करने के लिए, शरीर टिकाने के लिए इनका आश्रय लेना अनुचित नहीं है।
आरम्भ-परिग्रह से युक्त रहने वाले जो गृहस्थ हैं, तथा जो सारम्भ सपरिग्रह श्रमण-माहन हैं, वे इन दोनों प्रकार की क्रियाओं से या राग और द्वेष से अथवा पहले और पीछे या स्वतः और परतः पापकर्म करते रहते हैं । ऐसा जानकर साधु आरम्भ और परिग्रह अथवा राग और द्वेष दोनों के अन्त से इनसे अदृश्यमान हो इस प्रकार संयम में प्रवृत्ति करे । इसलिए मैं कहता हूँ-पूर्व आदि दिशाओं से आया हुआ जो भिक्षु आरम्भ-परिग्रह से रहित है, वही कर्म के रहस्य को जानता है, इस प्रकार वह कर्म बन्धन से रहित होता है तथा वही कर्मों का अन्त करने वाला होता है, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है। सूत्र - ६४७
सर्वज्ञ भगवान तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों को कर्मबन्ध के हेतु बताए हैं । जैसे कि-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक । जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पथ्थर से, अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखाकर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता है, या सताता है, अथवा क्लेश, उद्विग्न, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख होता है, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है । इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी और सर्व सत्व, डंडे, मुक्के, हड्डी, चाबुक यावत् उद्विग्न किये जाने से, यहाँ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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