Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
अध्ययन-२- क्रियास्थान सूत्र-६४८
हे आयुष्मन ! मैंने सुना है, उन आयुष्मन श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा था-निर्ग्रन्थ प्रवचन में ‘क्रियास्थान' अध्ययन है, उसका अर्थ यह है-इस लोक में सामान्य रूप से दो स्थान बताये जाते हैं, एक धर्म-स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान ।
इन दोनों स्थानों में से प्रथम अधर्मपक्ष का जो विभंग है उसका अर्थ इस प्रकार है-' इस लोक में पूर्व आदि छहों दिशाओं में अनेकविध मनुष्य रहते हैं, जैसे कि कईं आर्य होते हैं, कईं अनार्य, अथवा कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय अथवा कईं लम्बे कद के और कईं ठिगने (छोटे) कद के या कोई उत्कृष्ट वर्ण के और कईं निकृष्ट वर्ण के अथवा कईं सुरूप और कईं कुरूप होते हैं । उन आर्य आदि मनुष्यों में यह दण्ड का समादान देखा जाता है, जैसे कि-नारकों में, तिर्यंचों में, मनुष्यों में और देवों में, अथवा जो इसी प्रकार के विज्ञ प्राणी हैं, वे सुख-दुःख का वेदन करते हैं, उनमें अवश्य ही ये तेरह प्रकार के क्रियास्थान होते हैं, ऐसा कहा है । अर्थदण्ड, अनर्थदण्ड, हिंसा-दण्ड, अकस्मात् दण्ड, दृष्टिविपर्यासदण्ड, मृषाप्रत्ययिक, अदत्तादानप्रत्ययिक, अध्यात्मप्रत्ययिक, मानप्रत्ययिक, मित्रद्वेषप्रत्ययिक, मायाप्रत्ययिक, लोभप्रत्ययिक और ई-प्रत्ययिक । सूत्र - ६४९
प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए, अपने घर या परिवार के लिए, मित्रजनों के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष आदि के लिए स्वयं त्रस और स्थावर जीवों को दण्ड देता है; अथवा दूसरे से दण्ड दिलवाता है; अथवा दूसरा दण्ड दे रहा हो, उसका अनुमोदन करता है । ऐसी स्थिति में उसे उस सावधक्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है। सूत्र - ६५०
इसके पश्चात् दूसरा दण्डसमादानरूप क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कोई पुरुष ऐसा होता है, जो इन त्रसप्राणियों को न तो अपने शरीर की अर्चा के लिए मारता है, न चमड़े के लिए, न ही माँस के लिए और न रक्त के लिए मारता है । एवं हृदय के लिए, पित्त के लिए, चर्बी के लिए, पिच्छ पूंछ, बाल, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, नाड़ी, हड्डी और हड्डी की मज्जा के लिए नहीं मारता । तथा इसने मुझे या मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, अथवा मार रहा है या मारेगा इसलिए नहीं मारता एवं पुत्रपोषण, पशुपोषण तथा अपने घर की मरम्मत एवं हिफाजत के लिए भी नहीं मारता, तथा श्रमण और माहन के जीवन निर्वाह के लिए, एवं उनके या अपने शरीर या प्राणों पर किञ्चित उपद्रव न हो, अतः परित्राणहेतु भी नहीं मारता, अपितु निष्प्रयोजन ही वह मूर्ख प्राणियों को दण्ड देता हुआ उन्हें मारता है, छेदन करता है, भेदन करता है, अंगों को अलग-अलग करता है, आँखें नीकालता है, चमड़ी उधेड़ता है, डराता-धमकाता है, अथवा परमाधार्मिकवत् पीड़ा पहुंचाता है, तथा प्राणों से रहित भी कर देता है । वह सद्विवेक का त्याग करके या अपना आपा खोकर तथा निष्प्रयोजन त्रस प्राणियों को उत्पीड़ित करने वाला वह मूढ़ प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है। कोई पुरुष ये जो स्थावर प्राणी हैं, जैसे कि इक्कड़, कठिन, जन्तुक, परक, मयूरक, मुस्ता, तृण, कुश,
और पलाल नामक विविध वनस्पतियाँ होती हैं, उन्हें निरर्थक दण्ड देता है। वह इन वनस्पतियों को पुत्रादि के या पशुओं के पोषणार्थ, या गृहरक्षार्थ, अथवा श्रमण एवं माहन के पोषणार्थ दण्ड नहीं देता, न ही ये वनस्पतियाँ उसके शरीर की रक्षा के लिए कुछ काम आती हैं, तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खण्डन, मर्दन, उत्पीड़न करता है, उन्हें भय उत्पन्न करता है, या जीवन से रहित कर देता है । विवेक को तिलांजली देकर वह मूढ़ व्यर्थ ही प्राणियों को दण्ड देता है और उन प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है।
जैसे कोई पुरुष नदी के कच्छ पर, द्रह पर, या किसी जलाशय में, अथवा तृणराशि पर, तथा नदि आदि द्वारा घिरे हुए स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में अथवा किसी गहन में, वन में या घोर वन में, पर्वत पर या पर्वत के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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