Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - २६०
अप्रिय स्थिति में भिक्षु को देखकर ज्ञातिजनों एवं मित्रों को एकदा ऐसा होता है कि यह भिक्षु कामभोगों में गृद्ध एवं आसक्त है । (वे कहते हैं) तुम ही इस स्त्री के रक्षण-पोषण करने वाले मनुष्य हो । सूत्र - २६१
उदासीन श्रमण को ऐसी स्थिति में देखकर कुछ व्यक्ति कुपित हो जाते हैं । उन्हें न्यस्त भोजन में स्त्री-दोष की शंका होती है। सूत्र - २६२
समाधि योग से भ्रष्ट श्रमण ही उन (स्त्रियों) के साथ संस्तव करते हैं । इसलिए श्रमण आत्महित की दृष्टि से उसकी शय्या के निकट नहीं जाते । सूत्र-२६३
अनेक लोग/श्रमण गार्हस्थ्य का अपहरण कर मिश्र भाव प्रस्तुत करते हैं । वे वाग्वीर/कुशील उसे ही ध्रुवमार्ग कहते हैं। सूत्र-२६४
वह परीषद् में स्वयं को शुद्ध बतलाता है पर एकान्त में दुष्कर्म करता है । तत्ववेत्ता उसे जानते हैं कि यह मायावी है, महाशठ है। सूत्र-२६५
__वह अपना दुष्कृत नहीं बतलाता । आविष्ट होने पर वह बाल-पुरुष आत्म-प्रशंसा करता है । स्त्री-वेद का अनुचिन्तन मत करो-इस वाणी-उद्यम से वह खिन्न होता है। सूत्र - २६६, २६७
जो पुरुष स्त्रियों के साथ सहवास कर चुके हैं, स्त्रीवेद के परिसर के ज्ञाता हैं उनमें कुछ प्रज्ञा से समन्वित होते हुए भी स्त्रियों के वशीभूत हो जाते हैं । व्यभिचारी मनुष्यों के हाथ-पैर छेद कर, आग में सेककर, चमड़ी माँस नीकालकर उसके शरीर को क्षार से सिंचित किया जाता है। सूत्र - २६८
नाक, कान एवं कंठ के छेदित होने पर भी पाप से संतप्त पुरुष यह नहीं कहते कि हम पुनः ऐसा पाप नहीं करेंगे। सूत्र - २६९
यह लोक श्रुति है एवं स्त्री-वेद में भी कथित है कि स्त्रियाँ कही हुई बात का कर्मणा पालन नहीं करती। सूत्र - २७०
वह मन से चिन्तन कुछ और करती है वाणी से कुछ और तथा कर्म कुछ और ही करती है । इसलिए भिक्षु स्त्रियों को बहुमायावी जानकर उन पर श्रद्धा न करे । सूत्र - २७१
विविध वस्त्र एवं अलंकार से विभूषित युवती श्रमण से कहती हैं । भदन्त ! मुझे धर्मोपदेश दे । मैं विरत हो गई हूँ, संयम का पालन करूँगी। सूत्र - २७२, २७३
____ अथवा श्राविका होने के कारण मैं तुम्हारी सहधर्मिणी हूँ । किन्तु विद्वान स्त्री के साथ सहवास से वैसे विषाद करता है, जैसे अग्नि के सहवास से लाख का घड़ा ।
जैसे लाख का घड़ा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही स्त्री-सहवास से अनगार विनष्ट हो जाता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 25