Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक की ओर जाते हैं । वहाँ उस दुर्गम स्थान में वे साता प्राप्त नहीं कर पाते । निरन्तर अभितप्त स्थान में तपाये जाते हैं वहाँ दुःखोपनीत शब्द नगरवध की तरह सूनाई देते हैं । उदीर्णकर्मी उदीर्णकर्मियों को पुनः पुनः दुःख देते हैं। सूत्र - ३१८
ये पापी प्राणों का वियोजन करते हैं । यथार्थ कारण तुम्हें बताऊंगा । अज्ञानी दण्ड से संतप्त कर पूर्वकृत् सर्व पापों का स्मरण कराते हैं। सूत्र - ३१९, ३२०
वे हन्यमान महाभिताप होने पर दुरुपपूर्ण नरक में गिरते हैं, वे दुरुप/माँस भक्षी हो जाते हैं । कर्मवशात् कृमियों द्वारा काटे जाते हैं । उनका सम्पूर्ण स्थान सदा तप्त एवं अति दुःखमय है । वे उन्हे बेड़ियों में कैद कर उनके शरीर एवं सिर को छेदित कर अभिताप देते हैं। सूत्र-३२१, ३२२
वे उस अज्ञानी के नाक, औठ और कान छूरे से काट देते हैं । जिह्वा को वित्त मात्रा में बाहर नीकाल कर तीक्ष्ण शूलों से अभिताप देते हैं । वे मूढ़ तल (ताड़-पत्र) संपुट की तरह संपुटित कर देने पर रात-दिन क्रन्दन करते हैं । तप्त तथा क्षारप्रदिग्ध अङ्गों से मवाद, माँस और रक्त गिरता है। सूत्र - ३२३
यदि तुमने सूना हो, वहाँ पुरुष से भी अधिक प्रभावशाली और ऊंची एक कुम्भी है । वह रक्त और मवाद की पाचक, नव प्रज्वलित अग्नि अभितप्त और रक्त तथा मवाद से पूर्ण है। सूत्र-३२४
वे उन आर्तस्वरी तथा करुणक्रन्दी अज्ञानी नारकियों को कुम्भी में प्रक्षिप्त कर पकाते हैं । वहाँ पिपासातुर होने पर शीशा एवं ताम्बा पिलाने पर वे आर्तस्वर करते हैं। सूत्र - ३२५
पूर्ववर्ती अधमभवों में हजारों बार अपने आप को छलकर वे बहुक्रूरकर्मी वहाँ रहते हैं । जैसा कृत्कर्म होता है वैसा ही उसका भार/फल होता है। सूत्र - ३२६
इष्ट-कांत विषयों से विहीन अनार्य कलुषता उपार्जित कर एवं कर्मवशवर्ती होकर कृष्ण-स्पर्शी और दुर्गंधित अपवित्र स्थान में निवास करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-५ - उद्देशक-२ सूत्र - ३२७
अब मैं शाश्वत दुःखधर्मों द्वीतिय नरक के सम्बन्ध में यथातथ्य कहूँगा । अज्ञानी जैसे दुष्कर्म करते हैं वैसे ही पूर्वकृत् कर्मों का वेदन करते हैं। सूत्र - ३२८
हाथ और पैर बाँधकर उनका पेट छूरे एवं तलवार से काटते हैं । उस अज्ञानी के शरीर को पकड़कर क्षतविक्षत कर पीठ की स्थिरता को तोड़ देते हैं। सूत्र - ३२९
वे नारक की बाहु समूल काट देते हैं । उसके मुँह को स्थूल गोलों से जलाते हैं । उस अज्ञानी को रथ में योजित कर चलाते हैं एवं रुष्ट होने पर पीठ पर कोडे मारते हैं। सूत्र - ३३०
लोह के समान तप्त, ज्वलित, सज्योति भूमि पर चलते हुए वे दह्यमान नारक करुण क्रन्दन करते हैं । वे बाण से बींधे जाते हैं एवं तप्त जूए में योजित किये जाते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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