Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 48
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-१२-समवसरण सूत्र-५३५ क्रिया, अक्रिया तीसरा विनय और चौथा अज्ञान-ये चार समवसरण हैं, जिसे प्रावादुक/प्रवक्ता पृथक्पृथक् प्रकार से कहते हैं। सूत्र - ५३६ अज्ञानवादी कुशल होते हुए भी प्रशंसनीय नहीं है । वे विचिकित्सा से तीर्ण नहीं है । वे अकोविद हैं, अतः अकोविदों में बिना विमर्श किये मिथ्या भाषण करते हैं। सूत्र-५३७, ५३८ सत्य का असत्य चिन्तन करनेवाले, असाधु को साधु कहनेवाले अनेक विनयवादी हैं, जो पूछने पर विनय को प्रमाण बतलाते हैं । ऐसा वे (विनयवादी) अज्ञानवश कहते हैं कि हमें यही अर्थ अवभाषित होता है । अक्रियावादी भविष्य और क्रिया का कथन नहीं करते। सूत्र -५३९ वह सम्मिश्रभावी अपनी वाणी से गृहीत है । जो अनुनवादी है वह मौनव्रती होता है । वह कहता है यह द्विपक्ष है, यह एक पक्ष है । कर्म को षडायतन मानता है । सूत्र-५४० वे अनभिज्ञ अक्रियवादी विविध रूपों का आख्यान करते हैं, जिसे स्वीकार कर अनेक मनुष्य अपार संसार में भ्रमण करते हैं। सूत्र - ५४१ एक मत यह है कि सूर्य न उदित होता है और न अस्त । चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है । नदियाँ प्रवाहित नहीं है । हवा चलती नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण लोक अर्थ शून्य एवं नियत है। सूत्र - ५४२ जैसे नेत्रहीन अन्धा प्रकाश होने पर भी रूपों को नहीं देख पाता है वैसे ही निरुद्धप्रज्ञ अक्रियावादी क्रिया को भी नहीं देख पाते हैं। सूत्र - ५४३ इस लोक में अनेक पुरुष अन्तरिक्ष, स्वप्निक, लाक्षणिक, नैमितिक, दैहीक, औत्पातिक आदि अष्टांग शास्त्रों का अध्ययन कर अनागत को जान लेते हैं। सूत्र - ५४४ किन्हीं को निमित्त यथातथ्य ज्ञात है। किन्हीं का ज्ञान तथ्य के विपरीत है। जो विद्याभाव से अनभिज्ञ हैं, वे विद्या से मुक्त होने का आदेश देते हैं। सूत्र - ५४५ तीर्थंकर लोक की समीक्षा कर श्रमणों एवं माहणों को यथातथ्य बतलाते हैं । दुःख स्वयंकृत है अन्यकृत नहीं । प्रमोक्ष विद्या/ज्ञान और चरण/चारित्र से है। सूत्र-५४६ इस संसार में वे ही लोकनायक हैं जो दृष्टा है तथा जो प्रजा के लिए हीतकर मार्ग का अनुशासन करते हैं। हे मानव ! जिसमें प्रजा आसक्त है यथार्थतः वही शाश्वत लोक कहा गया है। सूत्र-५४७ जो राक्षस, यमलौकीक, असुर, गंधर्वकायिक आकाशगामी एवं पृथ्वीआश्रित प्राणी है। वे विपर्यास प्राप्त करते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 48

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