Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 60
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक निर्दोष भिक्षापात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके तट पर खड़ा होकर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अत्यन्त विशाल यावत मनोहर है। और वहाँ वह भिक्षु उन चारों पुरुषों को भी देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चूके हैं, और उत्तम श्वेत कमल को भी नहीं पा सके हैं। जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फँस गए हैं। इसके पश्चात् उस भिक्षुने उन चारों पुरुषों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा-अहो ! ये चारों व्यक्ति खेदज्ञ नहीं हैं, यावत् मार्ग की गति एवं पराक्रम से अनभिज्ञ हैं । इसी कारण ये लोग यों समझने लगे कि हम लोग इस श्रेष्ठ श्वेत कमल को नीकाल कर ले जाएंगे, परन्तु यह उत्तम श्वेत कमल इस प्रकार नहीं नीकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं। ''मैं निर्दोष भिक्षाजीवी साधु हूँ, राग-द्वेष से रहित हूँ । मैं संसार सागर के पार जाने का ईच्छुक हूँ, क्षेत्रज्ञ हूँ यावत जिस मार्ग से चलकर साधक अपने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ है मैं इस उत्तम श्वेत कमल को निकालूँगा, इसी अभिप्राय से यहाँ आया हूँ।'' यों कहकर वह साधु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं करता, वह उसके तट पर खड़ा-खड़ा ही आवाझ देता है-'हे उत्तम श्वेत कमल ! वहाँ से उठकर आ जाओ, आ जाओ!'' यों वह उत्तम पुण्डरीक उस पुष्करिणी से उठकर आ जाता है। सूत्र-६३९ "आयुष्मन् श्रमणों ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त कहा है; इसका अर्थ जानना चाहिए।' 'हाँ, भदन्त !' कहकर साधु और साध्वी श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करके भगवान महावीर से कहते हैं-"आयुष्मन् श्रमण भगवान ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ हम नहीं जानते ।'' श्रमण भगवान महावीर ने उन बहुत-से निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को कहा-'आयुष्मन् श्रमण-श्रमणियों ! मैं इसका अर्थ बताता हूँ। अर्थ स्पष्ट करता हूँ। पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता हूँ, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयंगम कराता हूँ; अर्थ, हेतु और निमित्त सहित उस अर्थ को बार-बार बताता हूँ।' सूत्र - ६४० __ अर्थ को मैं कहता हूँ-"आयुष्मन् श्रमणों ! मैंने अपनी ईच्छा से मानकर इस लोक को पुष्करिणी कहा है। और हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है । आयुष्मन् श्रमणों ! काम भोगों को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है । मैंने अपनी दृष्टि से आर्य देशों के मनुष्यों और जनपदों को पुष्करिणी के बहुत-से श्वेत कमल कहा है । मैंने मन में निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान श्रेष्ठ श्वेत कमल कहा है । और मैंने अन्यतीर्थिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फँसे हए चार पुरुष बताया है । मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है । मैंने सोचकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है । और आयुष्मन् श्रमणों ! मैंने अपनी आत्मा में निश्चित करके धर्मकथा को उस भिक्षु का वह शब्द कहा है । आयुष्मन् श्रमणों ! मैंने अपने मन में स्थिर करके निर्वाण को श्रेष्ठ पुण्डरीक का पुष्करिणी से उठकर बाहर आना कहा है । इन पुष्करिणी आदि को इन लोक आदि के दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। सूत्र - ६४१ इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उत्पन्न कई प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे कि-उन मनुष्यों में कईं आर्य होते हैं अथवा कईं अनार्य होते हैं, कईं उच्चगोत्रीय होते हैं, कईं नीचगोत्रीय । उनमें से कोई भीमकाय होता है, कईं ठिगने कद के होते हैं । कोई सुन्दर वर्ण वाले होते हैं, तो कोई बूरे वर्ण वाले । कोई सुरूप होते हैं तो कोई कुरूप होते हैं । उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है । वह महान हिमवान् मलयाचल, मन्दराचल तथा महेन्द्र पर्वत के समान सामर्थ्यवान होता है । वह अत्यन्त विशुद्ध राजकुल के वंश में जन्मा हुआ होता है । उसके अंग राजलक्षणों से सुशोभित होते हैं । उसकी पूजा-प्रतिष्ठा अनेक जनों द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, वह गुणों से समृद्ध होता है, वह क्षत्रिय होता है । सदा प्रसन्न रहता है । राज्याभिषेक किया हुआ होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 60

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