Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक इसलिए जो लोग जीव को शरीर से भिन्न नहीं मानते, उनका मत ही युक्तिसंगत है। जिन लोगों का यह कथन है कि जीव अन्य है, और शरीर अन्य है, वे जीव को उपलब्ध नहीं करा पाते (१) जैसे कि कोई व्यक्ति म्यान से तलवार को बाहर नीकाल कर कहता है-यह तलवार है, और यह म्यान है । इसी प्रकार कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर से जीव को पृथक् करके दिखला सके कि यह आत्मा है और यह शरीर है (२) जैसे कि कोई पुरुष मुंज नामक घास के इषिका को बाहर नीकाल कर बतला देता है कि यह मुंज है, और यह इषिका है । इसी प्रकार ऐसा कोई उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो यह बता सके कि यह आत्मा है और यह शरीर है। (३) जैसे कोई पुरुष माँस से हड्डी को अलग करके बतला देता है कि यह माँस है और यह हड्डी है । इसी तरह कोई ऐसा उपदर्शक पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को अलग करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है। (४) जैसे कोई पुरुष हथेली से आँबले को बाहर नीकाल कर दिखला देता है कि यह हथेली है, और यह आँवला है । इसी प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को पृथक् करके दिखा दे कि यह आत्मा है, और यह शरीर है। (५) जैसे कोई पुरुष दहीं से नवनीत को अलग नीकाल कर दिखला देता है कि "आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह दहीं है ।'' इस प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो शरीर से आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है। (६) जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल नीकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि "आयुष्मन् ! यह तेल है और यह तिलों की खली है," वैसे कोई पुरुष ऐसा नहीं है, जो शरीर को आत्मा से पृथक् करके दिखा सके कि यह आत्मा है, और यह उससे भिन्न शरीर है। (७) जैसे कि कोई पुरुष ईख से उसका रस नीकाल कर दिखा देता है कि "आयुष्मन् ! यह ईख का रस है और यह उसका छिलका है;" इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो शरीर और आत्मा को अलग-अलग करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है। (८) जैसे कि कोई पुरुष अरणि की लकड़ी से आग नीकाल कर प्रत्यक्ष दिखला देता है कि यह अरणि है और यह आग है, इसी प्रकार कोई ऐसा नहीं है जो शरीर और आत्मा को पृथक् करके दिखला दे कि यह आत्मा है और यह शरीर है । इसलिए आत्मा शरीर से पृथक् उपलब्ध नहीं होती, यही बात युक्तियुक्त है । इस प्रकार जो पृथगात्मवादी बारबार प्रतिपादन करते हैं, कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है, पूर्वोक्त कारणों से उनका कथन मिथ्या है। इस प्रकार तज्जीवतच्छरीरवादी स्वयं जीवों का हनन करते हैं, तथा इन जीवों को मारो, यह पृथ्वी खोद डालो, यह वनस्पति काटो, इसे जला दो, इसे पकाओ, इन्हें लूँट लो या इनका हरण कर लो, इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा कर डालो, इन्हें पीड़ित करो इत्यादि । इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, परलोक नहीं है । वे शरीरात्मवादी नहीं मानते कि-सक्रिया या असत्क्रिया, सुकृत या दुष्कृत, कल्याण या पाप, भला या बूरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक या स्वर्ग आदि । इस प्रकार वे शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ करके विविध प्रकार के कामभोगों का सेवन करते हैं। इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा न मानने की धृष्टता करने वाले कोई प्रव्रज्या धारण करके 'मेरा ही धर्म सत्य है, ऐसी प्ररूपणा करते हैं । इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा, प्रतीति, रुचि रखते हुए कोई राजा आदि उस शरीरात्मवादी से कहते हैं-'हे श्रमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव-तच्छरीरवाद रूप उत्तम धर्म बताकर बहुत ही अच्छा किया, हे आयुष्मन् ! अतः हम आपकी पूजा करते हैं, हम अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य अथवा वस्त्र, पात्र, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 62

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114