Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ३९४
(वे) सायं और प्रातः जल स्पर्शन कर जल से सिद्धि निरूपित करते हैं । पर यदि जल-स्पर्श से सिद्धि प्राप्त हो जाती तो अनेक जलचर प्राणी सिद्ध हो जाते । सूत्र - ३९५, ३९६
मत्स्य, कूर्म, जल सर्प, बतख, उद्विलाव और जल-राक्षस जल जीव हैं । जो जल से सिद्धि प्ररूपित करते हैं उन्हें कुशल-पुरुष अयुक्त' कहते हैं ।
यदि जल कर्म-मलका हरण करता है तो शुभ का भी हरण करेगा, अतः यह बात ईच्छाकल्पित है । मन्द लोग अन्धे की तरह अनसरण कर प्राणों का ही नाश करते हैं। सूत्र - ३९७
यदि पापकर्मी का पाप शीतल जल हरण कर लेता है तो जल जीवों के वधिक भी मुक्त हो जाते । अतः जलसिद्धिवादी असत्य बोलते हैं। सूत्र-३९८
जो सायं एवं प्रातः अग्नि स्पर्श करते हुए हवन से सिद्धि कहते हैं, पर यदि ऐसे सिद्धि प्राप्त होती तो अग्निस्पर्शी कुकर्मी भी सिद्ध हो जाते । सूत्र - ३९९
अपरीक्षित दृष्टि से सिद्धि नहीं है। वे अबुध्यमान मनुष्य घात प्राप्त करेंगे । अतः त्रस और स्थावर प्राणियों के सुख का प्रतिलेख कर बोध प्राप्त करो। सूत्र - ४००
विविधकर्मी प्राणी रुदन करते हैं, लुप्त होते हैं और त्रस्त होते हैं । अतः विद्वान, विरत और आत्मगुप्त भिक्षु त्रसजीवों को देखकर संहार से निवृत्त हो जाए । सूत्र -४०१
जो धर्म से प्राप्त आहार का संचय कर भोजन करते हैं, शरीर-संकोच कर स्नान करता है, वस्त्र धोता है अथवा मलता है वह नग्नता से दूर कहा गया है। सूत्र-४०२
धीर पुरुष जल में कर्म जानकर मोक्ष पर्यन्त अचित्त जल से जीवन यापन करे । वह बीज, कंद आदि का अनुपभोगी स्नान एवं स्त्री आदि से विरत रहे। सूत्र -४०३
जो माता-पिता, गृह, पुत्र, पशु एवं धन का त्याग कर के भी स्वादिष्टभोजी कुलों की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर कहा गया है। सूत्र - ४०४
___ जो स्वादिष्ट भोजी कुलों की ओर दौड़ता है, उदरपूर्ति के लिए अनुगृद्ध होकर धर्म-आख्यान करता है, भोजन के लिए आत्म-प्रशंसा करता है, वह आर्यों का शतांशी है। सूत्र -४०५
____ जो अभिष्क्रमित होकर भोजन के लिए दीन होता है, गृद्ध होकर दाता की प्रशंसा करता है, वह आहार गृद्ध सुअर-विशेष की तरह शीघ्र ही विनष्ट होता है। सूत्र -४०६
जो इहलौकिक अन्नपान के लिए प्रिय वचन बोलता है, वह पार्श्वस्थ भाव और कुशीलता का सेवन करता है वह वैसे ही निःसार होता है, जैसे धान के छिलके ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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