Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 38
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-८- वीर्य सूत्र - ४११ स्वाख्यात वीर्य दो प्रकार का कहा गया है। वीर का वीरत्व क्या है ? उन्हें वीर क्यों कहा जाता है? सूत्र - ४१२ सुव्रतों ने कर्म वीर्य और अकर्मवीर्य प्रतिपादित किया है। इन्हीं दो स्थानों में मर्त्य प्राणी दिखाई देते हैं। सूत्र - ४१३ प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है । बाल या पंडित तो भाव की अपेक्षा से होता है। सूत्र - ४१४ कईं लोग प्राणियों के अतिपात के लिए शस्त्र-प्रशिक्षण करते हैं । कईं लोग प्राणियों एवं भूतों को वश में करनेवाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं। सूत्र - ४१५, ४१६ मायावी माया करके कामभोग प्राप्त करते हैं । वे स्व-सुखानुगामी हनन, छेदन और कर्तन करते हैं। वे असंयती यह कार्य मन, वचन और अन्त में काया से, स्व-पर या द्विविध करते हैं। सूत्र - ४१७ वैरी वैर करता है तत्पश्चात् वैर में राग करता है । आरम्भ पाप की ओर ले जाते हैं । अंत में दुःख स्पर्श होता है। सूत्र - ४१८ आर्त-रूप दुष्कृतकर्मी सम्पराय प्राप्त करते हैं । राग-द्वेष के आश्रित वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं । सूत्र - ४१९ यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य प्रवेदित किया । अब पंडितों का अकर्मवीर्य मुझसे सूनो । सूत्र-४२० बन्धन मुक्त एवं बन्धन-छिन्न द्रव्य हैं । सर्वतः पाप कर्म से विहीन भिक्षु अन्ततः शल्य को काट देता है। सूत्र-४२१ नैर्यात्रिक/मोक्षमार्गी स्वाख्यात को सूनकर चिन्तन करे । दुःखपूर्ण आवासों को तो ज्यों-ज्यों भोगा जाएगा, त्यों-त्यों अशुभत्व होगा। सूत्र-४२२ निस्सन्देह स्थानी (मोक्ष-मार्गी) अपने विविध स्थानों का त्याग करेंगे । ज्ञातिजनों एवं मित्रों के साथ यह वास अनित्य है। सूत्र -४२३ ऐसा चिन्तन कर मेघावी स्वयं को गृद्धता से उद्धरित करे । सर्वधर्मों में निर्मल आर्य धर्म को प्राप्त करे। सूत्र - ४२४ धर्म-सार को अपनी सन्मति से जानकर अथवा सूनकर समुपस्थित/प्रयत्नशील अनगार पाप का प्रत्याख्यानी होता है। सूत्र - ४२५ अपने आयुक्षेम का जो उपक्रम है, उसे जाने, तत्पश्चात् पण्डित शीघ्र शिक्षा ग्रहण करे । सूत्र -४२६ जैसे कछुआ अपने अंगों को अपनी देह में समाहित कर लेता है वैसे ही आत्मा को पापों से अध्यात्म में ले जाना चाहिए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूत्रकृत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 38

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