Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-४८५
स्त्री-मैथुन से विरत, अपरिग्रही, ऊंच-नीच विषयों में मध्यस्थ भिक्षु समाधि प्राप्त है। सूत्र - ४८६
भिक्षु अरति और रति को अभिभूत कर तृणादि स्पर्श तथा शीत स्पर्श, उष्ण तथा दंश को सहन करे । सुरभि एवं दुरभि में तितिक्षा रखे। सूत्र - ४८७
गुप्त-वाची एवं समाधि-प्राप्त (भिक्षु) विशुद्ध लेश्याओं को ग्रहण कर परिव्रजन करे, स्वयं गृहच्छादन न करे और दूसरों से न करवाए । प्रजा के साथ एक स्थान पर न रहे। सूत्र-४८८
जगत में जितने भी अक्रियात्मवादी हैं, वे अन्य के पूछने पर धुत का प्रतिपादन करते हैं, पर वे आरम्भ में आसक्त और लोक में ग्रथित होकर मोक्ष के हेतु धर्म को नहीं जानते हैं। सूत्र-४८९
उन मनुष्यों के विविध छंद (अभिप्राय) होते हैं । क्रिया और अक्रिया पृथग्वाद है । जैसे नवजात शिशु का शरीर बढ़ता है वैसे ही असंयत का वैर बढ़ता है। सूत्र-४९०
आयुक्षय से अनभिज्ञ, ममत्वशील, साहसकारी मंद, आर्त और मूढ़ स्वयं को अजर-अमर मानकर रातदिन संतप्त होता है। सूत्र - ४९१
वित्त, पशु, बान्धव और अन्य जो भी प्रियमित्र हैं उन्हें छोड़कर वह विलाप करता है और मोहित होता है, अन्य लोग उसके धन का हरण कर लेते हैं। सूत्र - ४९२
जैसे विचरणशील क्षुद्र मृग सिंह से परिशंकित हो दूर विचरण करते हैं इसी प्रकार मेघावी धर्म की समीक्षा कर दूर से ही पाप का परिवर्जन करे । सूत्र - ४९३
संबुध्यमान, मतिमान, नर हिंसा प्रसूत दुःख को वैरानुबन्धी एवं महाभयकारी मानकर पाप से आत्मनिवर्तन करे। सूत्र-४९४
आत्मगामी मुनि असत्य न बोले । मृषावाद न स्वयं करे न अन्य से करवाए और न करने वाले का समर्थन करे । यही निर्वाण और सम्पूर्ण समाधि है । सूत्र - ४९५
_ अमूर्च्छित और अध्युपपन्न साधक प्राप्त आहार को दूषित न करे । धृतिमान, विमुक्त भिक्षु पूजनार्थी एवं प्रशंसा कामी न होकर परिव्रजन करे । सूत्र - ४९६
गृह से अभिनिष्क्रमण कर निरवकांक्षी बने । शरीर का व्युत्सर्ग कर रहितनिदान बने, जीवन मरण का अनिभिकांक्षी एवं वलय से विमुक्त भिक्षु संयम का आचरण करे । -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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