Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक साधक आत्मौपम्य-सहित देखता है । पीड़ा स्पर्श होने पर डरे नहीं, सहन करे । सूत्र-१०२ साधक कर्म-लेप को धुने । देह को अनशन/उपवासादि से कृश करे । अहिंसा में प्रव्रजन करे । यही श्रमण महावीर द्वारा प्ररूपित अनुधर्म है। सूत्र - १०३ जैसे पक्षिणी धूल से अनुगुष्ठित होने पर अपने को कंपित कर धूल को झाड़ देती है, वैसे ही द्रव्य उपधानवान तपस्वी ब्राह्मण कर्मों को क्षीण करता है। सूत्र - १०४ अनगारत्व की एषणा के लिए उपस्थित एवं श्रमणोचित स्थान में स्थित तपस्वी पुरुष को चाहे बच्चे और बूढ़े सभी प्रार्थना कर ले, किन्तु वे उसे गृहस्थ-जीवन में वापस नहीं बुला सकते। सूत्र - १०५ यदि वे उस श्रमण के समक्ष करुण विलाप कर आकर्षित करना चाहे, तो भी वे साधना में उद्यत उस भिक्षु को समझाकर गृहस्थ में नहीं ले जा सकते । सूत्र - १०६ चाहे वे उस श्रमण को काम-भोगों के लिए आमंत्रित करे या बाँधकर घर ले आए, पर जो जीवन की ईच्छा नहीं करता उसे समझाकर गृहस्थ में नहीं ले जा सकते । सूत्र-१०७ ममत्व दिखाने वाले उसके माता-पिता और पुत्री-पत्नी आदि सभी श्रमण को शिक्षा देते हैं-तुम दूरदर्शी हो, अतः हमारा पोषण करो, अन्यथा परलोक का पोषण कैसे होगा? सूत्र - १०८ अन्य पुरुष अन्य में मूर्च्छित होते हैं । वे असंस्कृत-पुरुष मोह को प्राप्त करते हैं । विषम को ग्रहण करने वाले पुनः पाप को संचय करते हैं। सूत्र - १०९ इसलिए पंडित अभिनिवृत-पुरुष-साधक पाप-कर्म से विरत बने । इस विषमता को देखकर वीर पुरुष ध्रुव की यात्रा कराने वाले महापथ-सिद्धिपथ पर प्रणत होते हैं। सूत्र - ११० मन-वचन-काया से संवृत-पुरुष वैतालीय मार्ग पर उपस्थित रहे । धन, स्वजन और हिंसा का त्याग करे । सुसंस्कृत होकर विचरण करे । - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२ - उद्देशक-२ सूत्र - १११ मुनि रज सहित काया के स्वामित्व का त्याग करता है । यह सोचकर मुनि मद न करे । ब्राह्मण द्वारा अन्य गोत्रों की उपेक्षा-मूलक आकांक्षा अश्रेयस्कर है। सूत्र - ११२ ___जो दूसरे लोगों को पराभूत करता है, वह संसार में महत्-परिभ्रमण करता है । पराभव की आकांक्षा पापजनक है । यह जानकर मुनि मद न करे । सूत्र - ११३ चाहे कोई अधिपति हो या अनायक/भृत्य; इस मौन-पद/मुनि-पद में उपस्थित होने के बाद लज्जा न करे। सदैव समता-पूर्वक विचरण करे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 13 Page 13

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114