Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 20
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - १९१ जिस तरह वन में उत्पन्न हुए वृक्ष को वनलताएं बांध लेती हैं, उसी तरह साधु के चित्त में अशांति उत्पन्न करके उनको ज्ञातिजन अपने स्नेहपाश में बांध लेते हैं। सूत्र - १९२ जब वह साधु स्वजनवर्ग के स्नेह में बंध जाता है; तब वे स्वजन उस साधु को ऐसे रखते हैं, जैसे पकड़ा हआ नया हाथी । या नव प्रसूता गाय अपने बछड़े को अलग नहीं होने देती वैसे ही वे परिवारजन उस घर आए साधु के निकट ही रहते हैं। सूत्र - १९३ स्वजन आदि का यह स्नेह मनुष्यों के लिए समुद्र की तरह दुस्तर है । स्वजन आदि में मूर्छित होकर असमर्थ बना हुआ मनुष्य क्लेश को प्राप्त करता है। सूत्र-१९४ स्वजन संग को संसार का कारण मानकर साधु उसका त्याग करे क्योंकि स्नेह संबंध कर्म का महाआश्रव द्वार है । सर्वज्ञ कथित अनुत्तर धर्म का श्रवण करके साधु असंयमी जीवन की ईच्छा न करे । सूत्र-१९५ काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने यह स्नेह सम्बन्धों को आवर्त की उपमा दी है । जो ज्ञानी पुरुष हैं, वह तो इससे दूर हो जाता है मगर अज्ञानी इस स्नेह में आसक्त हो कर दुःखी होते हैं। सूत्र - १९६ चक्रवर्ती आदि राजा, राजमंत्री, पुरोहित आदि ब्राह्मण एवं अन्य क्षत्रियजन आदि, उत्तम आचरण से जीवन बीताने वाले साधु को भोग के लिए निमंत्रित करते हैं। सूत्र- १९७,१९८ यह चक्रवर्ती आदि कहते हैं, हे महर्षि ! आप यह रथ, अश्व, पालखी आदि यान में बैठीए, चित्तविनोद आदि के लिए उद्यान आदि में चलिए। आयुष्मन् ! वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियाँ, शयन आदि भोग्य भोगों को भोगो । हम तुम्हारी पूजा करते हैं। सूत्र - १९९ हे सुव्रत ! तुमने मुनिभाव में जो नियम धारण किया है, वह सब घर में निवास करने पर भी उसी तरह बना रहेगा। सूत्र - २०० चिर-विचरणशील के लिए इस समय दोष कैसा ? वे नीवार (आहारादि) से सूकर की तरह मुनि को निमंत्रित करते हैं। सूत्र - २०१ भिक्षुचर्या में प्रवृत्त होते हुए भी मन्द पुरुष वैसे ही विषाद ग्रस्त होते हैं, जैसे चढ़ाई में दुर्बल (बैल) विषाद करता है। सूत्र - २०२ संयम पालन में असमर्थ तथा तपस्या से तर्जित मंद पुरुष वैसे ही विषाद करते हैं, जैसे कीचड़ में वृद्ध बैल विषाद करता है। सूत्र - २०३ इस प्रकार निमंत्रण पाकर स्त्री-गृद्ध, काम-अध्युपपन्न बने भिक्षु गृहवास की ओर उद्यम कर बैठते हैं । - ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 20

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