Book Title: Agam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१५४
मनुष्य मोहवश पुनः पुनः दुःखी होता है । (अतः) साधक श्लाधा और पूजा से दूर रहे । सहिष्णु एवं संयमी समस्त प्राणियों पर आत्म-तुल्य बने । सूत्र - १५५
संयत-मनुष्य गृहस्थ में रहता हुआ भी क्रमशः समस्त प्राणियों पर समभावयुक्त होकर वह सुव्रती देवलोक को प्राप्त करता है। सूत्र-१५६
। भगवान के अनुशासन/आज्ञा को सूनकर सत्य का उपक्रम करे । भिक्षु सर्वत्र मात्सर्य-रहित होकर विशुद्ध वृत्ति/चर्या करे। सूत्र - १५७
धर्मार्थी वीर्य-उपधान/पराक्रम को सर्वविध जानकर धारण करे । सदा गुप्तियुक्त यत्न करे । इसी से परम आत्मा में स्थिति होती है। सूत्र-१५८
वित्त, पश, ज्ञातिजन को अज्ञानी शरण मानता है। वे मेरे हैं या मैं उनका हँ; ऐसा मानने पर भी वे न त्राण या शरण नहीं होते। सूत्र - १५९
दुःख कर्म-आगमन से या भवउपक्रम होने पर होता है । जीव अकेला ही जाता-आता है । यह मानकर विद्वान किसी को शरण नहीं मानता । सूत्र - १६०
सभी प्राणी स्वयंकृत् कर्म से कल्पित हैं । अव्यक्त दुःख से भयाकुल शठपुरुष जाति-मरण के दुःखों से पीड़ित होता हुआ परिभ्रमण करता है। सूत्र-१६१
इस क्षण को जाने । बोधि और आत्महित सुलभ नहीं है, ऐसा इन जिनेन्द्र ने और शेष जिनेन्द्रों ने भी कहा
सूत्र-१६२
हे भिक्षु ! पूर्व में सुव्रतों के लिए आदेश था, आगे भी आदेश होगा और अभी भी है । ये गुण काश्यप के धर्म का अनुचरण करने वालों के लिए कथित है। सूत्र-१६३
त्रिविध योग से प्राणियों का हनन न करे । आत्महितेच्छु-पुरुष अनिदान एवं संवृत रूप है । सिद्ध इस समय भी अनन्त हैं और अनागत में भी होंगे। सूत्र-१६४
इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तरज्ञान-दर्शनधारी, अर्हत् ज्ञातपुत्र भगवान ने वैशाली में कहा । -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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