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२४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन आदि में विश्वास रखना आवश्यक है। सूत्रकार ने सर्वप्रथम आत्मअस्तित्व सम्बन्धी यह प्रश्न उठाया है कि वर्तमान जीवन से पूर्व मेरा अस्तित्व था अथवा नहीं ? इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता रहेगी या नहीं ? आदि । पुनर्जन्म एवं आत्मा को नित्यता ये नैतिकता के मौलिक प्रश्न हैं। आत्मा का स्वरूप :
जिज्ञासा मानव-मन की सहज प्रवृत्ति है। अतः उसके अन्तर्मन में यह प्रश्न उठे बिना नहीं रहता कि 'कोऽहं कीदग कूतः आयातः' अर्थात् में कौन हूँ, मैं कैसा हूँ और कहां से आया हूँ। आचाराङ्ग का प्रारम्भ ही अस्तित्व विषयक जिज्ञासा से होता है । जैसे-'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" वेदान्त का मूल सूत्र है, वैसे ही 'आत्म-जिज्ञासा' आचाराङ्ग का मूल सूत्र है । जिज्ञासु के मन में सर्वप्रथम यही प्रश्न उठता है कि मैं कहां से आया हैं ? कहां जाऊंगा? ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ या अधोदिशा से ? मैं कौन था? और मृत्यु के उपरान्त क्या होऊँगा ? आदि । ___ वस्तुतः आचाराङ्ग के 'कोऽहं' और 'सोऽहं' ये दो सूत्र आत्मवादी दर्शन के दो नेत्र कहे जा सकते हैं। प्रथम सूत्र 'कोऽहं आसी' अस्तित्वसम्बन्धी जिज्ञासा का सूचक है। यह दार्शनिक चिन्तन का आधारभूत सूत्र है। दूसरे सूत्र 'सोऽहं' में अस्तित्व या स्व स्वरूप की सत्ता का प्रत्यक्ष-बोध है । जो यह बताता है कि यह दिशा-विदिशा में भवभ्रमण करने वाला में ही हूँ। __इस प्रकार जो आत्मा अपने अस्तित्व या स्वस्वरूप को जान लेता है, वही आत्मवादी है । जो आत्मवादी है, वही लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी हो सकता है । व्यक्ति के लिए सारभूत प्रश्न अपनी सत्ता से ही सम्बन्धित हैं । अस्तित्व-बोध के आधार पर ही नैतिक चेतना का विकास सम्भव है। इस तरह, चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त शेष समस्त भारतीय अध्यात्मवादी दर्शन आत्म-सत्ता को स्वोकार करते हैं और उसके अस्तित्व में विश्वास प्रकट करते हैं। जहां तक आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न है, पाश्चात्य चिन्तक-प्लेटो, अरस्तू, सुकरात, देकार्त, लाक, बर्कले, मैक्समूलर, शोपेनहावर आदि ने भी इसे एक मत से स्वीकार किया है । यद्यपि उसके स्वरूप, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि के सम्बन्ध में उनकी विभिन्न धारणाएं रहो हैं, तथापि आत्म-अस्तित्व के प्रश्न को लेकर उनमें मत वैभिन्न्य नहीं है। इस प्रकार आचाराङ्ग की भांति
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