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श्रमणाचार : २१७ (२) साधु के निमित्त से जीवहिंसा करके बनाया गया, खरीदा गया, उधार लिया गया, छीनकर लिया गया, सामने से लाया गया तथा स्वामी की आज्ञा के बिना दिया जा रहा, ऐसा चतुर्विध आहार पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत। उसमें से किसी दूसरे ने स्वीकार किया हो या नहीं किया हो, खाया हो या नहीं खाया हो ऐसा अनेषणीय आहार । इसी तरह एक या अनेक साधु-साध्वियों के लिए बनाया हुआ आहार भो ग्राह्य नहीं है ।४४ शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, भिखारी आदि के उद्देश्य से समारम्भ कर बनाया गया आहार भी अग्राह्य है।" जब तक कि वह पुरुषान्तरकृत नहीं हुआ है या उपयोग में नहीं ले लिया गया है, किन्तु दोषों से रहित आहार मुनि ले सकता है।४। इस नियम के द्वारा अन्य भिक्षुओं, श्रमणों को हानि नहीं पहुँचाने की भावना व्यक्त होती है। इसी तरह जो अशनादि आहार भाट आदि के लिये बनाया गया है किन्तु अभी तक उनको सौंपा नहीं गया है, ऐसा आहार भी ग्राह्य नहीं है।
(३) सचित्तजल या थोड़े उष्ण जल से हाथ, बर्तन आदि को धोकर दिया जाने वाला आहार ।
(४) यदि गृहस्थ ने भिक्षा देने हेतु हाथ आदि नहीं धोए हैं किन्तु अपने कार्यवश धोए हैं फिर भी गोले हाथ या पात्र से दिया जाने वाला आहार।
(५) इसी प्रकार सचित्त रज और मिट्टी, खारी और पीली मिट्टी, खड़िया, हरताल, शिंगरफ, मनःशिला, अंजन, लवण, गेरू, तुवरिका, पिष्ट-विना छना चूर्ण, कुक्कुस चूर्ण के छान से, पीलू पर्णिका आदि आर्द्र पत्तों के चूर्ण आदि से संसक्त हाथों या भाजन से दिया जाने वाला आहार । यदि हाथ या बर्तन सचित्त पदार्थों से संस्पृष्ट नहीं है तो मुनि ऐसा निर्दोष आहार ग्रहण कर सकता है।
सचित्त रज से युक्त चावल आदि अनाज के दानों को साधु को देने के उद्देश्य से सचित्त-शिला या मकड़ी के जालों से युक्त शिला पर पीसकर या वायु में झटककर देने पर भो ग्रहण न करे।४९ इसी भाँति बीड ( खान ) एवं समुद्री नमक को भी ग्रहण न करे । ५० संखडि ( सामूहिक भोज) का आहार भी न ले।
(६) इसी तरह भीति पर, स्तम्भ पर, मंच पर, छत पर, प्रासाद पर या किसी अन्य ऊँचे स्थान पर रखा हुआ आधार यदि नीचे उतार दिया
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