Book Title: Acharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 300
________________ उपसंहार: २८७ हैं और भावनात्मक भी। यही कारण है कि जैन आचार, दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व बना हुआ है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये महाव्रत आनुषांगिक रूप से अहिंसा महाव्रत के सहयोगी माने जा सकते हैं। हिंसा का मूल कारण परिग्रह या आसक्ति को वृत्ति है। व्यक्ति को यदि अहिंसक बनना है तो उसे अपरिग्रही बनना होगा। स्तेय वृत्ति का कारण परिग्रह या संचय वृत्ति और परिणाम हिंसा है। अतः अहिंसा की साधना करने वाले साधक को स्तेय वृत्ति से दूर रहना होगा। ___ अब्रह्मचर्य, विवेक या प्रज्ञा को कुण्ठित करता है और इस रूप में हमारे स्वरूप का घातक है । साथ ही मैथुन कर्म में भी हिंसा होती है । अतः अहिंसा की पूर्ण साधना बिना ब्रह्मचर्य के सम्भव नहीं है । इसी प्रकार सत्य और अहिंसा चाहे बाहर से भिन्न-भिन्न दिखलाई दें-सत्य के बिना अहिंसा का और अहिंसा के बिना सत्य का अस्तित्व नहीं है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में अहिंसा का जितने विस्तार और गहराई से विवेचन उपलब्ध होता है उतना अन्य प्राचीन ग्रन्थों में नहीं। वस्तुतः आचारांग के अनुसार नैतिकता और अनैतिकता का यदि कोई प्रमापक है तो वह अहिंसा ही है। जहाँ हिंसा है वहाँ अनैतिकता है और जहाँ अहिंसा है वहाँ नैतिकता है। ___ जैन धर्म मूलतः एक निवृत्ति प्रधान धर्म है और इस कारण उसमें श्रमण जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैसे जैन परम्परा में आधार के मूलभूत नियमों को दो भागों में विभाजित किया जाता है-१-श्रमणाचार और २-गृहस्थाचार । किन्तु आचारांग के दोनों ही श्रुतस्कन्धों में गहस्थाचार का विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । गृहस्थाचार सम्बन्धी नियमों का उसमें अभाव ही है। ___ आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध अहिंसा, संयम, अप्रमत्तता आदि आचार के मूलभूत सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है जबकि दूसरा श्रुतस्कन्ध आच र के विभिन्न नियमों और उपनियमों की चर्चा करता है । दूसरे श्रुतस्कंध में इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है कि मुनि को किस प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र और निवासस्थान ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंध में साधु-साध्वियों के पारस्परिक एवं सामाजिक व्यवहार के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ प्रकाश डाला गया है। इन सब चर्चाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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