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२५४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन किन्तु वहाँ परवर्ती ग्रन्थों की भाँति उन्हें अलग-अलग दो भेदों में नहीं बांटा गया है। परन्तु जहाँ जैसा प्रसंग चल रहा हो वैसा वर्णन किया गया है। परवर्ती ग्रन्थों में तप को 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। दोनों के छ:-छः भेद हैं।
(१) अनशन (२) ऊणोदरी या अवमौदर्य (३) वृत्तिपरिसंख्यान या भिक्षाचरी (४) रस-परित्याग (५) कायक्लेश (६) संलीनता या विविक्त शयनासन ये बाह्य तप हैं। (७)प्रायश्चित्त (८) विनय, (९) वैयावृत्त्य (१०) स्वाध्याय (११) ध्यान और (१२) कायोत्सर्ग-ये आभ्यन्तर तप हैं। बाह्म तप:
जिस तप में शारीरिक वाह्य क्रिया की प्रधानता रहती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा युक्त होने से दूसरों को दृष्टिगोचर होता है, वह बाह्य तप कहलाता है।
अनशन, ऊणोदरी आदि तप से आहार एवं स्वाद विषयक इच्छा का निरोध कर आभ्यन्तर तप की ओर अग्रसर होने में मदद मिलती है। सबसे पहले बाह्य इच्छा आकांक्षा का निरोध आवश्यक है और वह शरीर से ही संभव है। इसीलिए उपवास, भूख से कम आहार, वस्तुओं की मर्यादा, रस का परित्याग तथा कायक्लेश आदि को तप कहा गया है। अनशन:
न अशनं इति 'अनशन' अर्थात् सब प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है । यह अनशन दो प्रकार होता है-(१) अल्पकालिक और (२) यावत्कथित । एक अल्प समय के लिए किया जाता है और दूसरा जीवनपर्यन्त के लिए भी किया जा सकता है। अल्पकालिक अनशन :
साधक को इन्द्रिय निग्रह या चित्त शुद्धि के लिए जब जैसी और जितनी आवश्यकता हो, वैसा अनशन करना चाहिए। इन्द्रिय-विषयों से पीड़ित मुनि के लिए आचारांग में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'अवि आहारं वोच्छिंदेज्जा' वह मुनि आहार का परित्याग ( अनशन ) करे । १८९ यावत्कथित अनशन तप:
यह जीवन के अन्तिम समय में किया जाता है अर्थात् मृत्यु के अत्यन्त निकट होने पर शरीर के परित्याग के लिए किया जाता है । इसे संलेखना
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