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२६४ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
इसकी महत्ता को प्रतिष्ठित करते हुए सूत्रकार कहता है कि वास्तव में शरीर का विनाशकाल (मृत्यु) संग्राम - शीर्ष (युद्ध का अग्रिम मोर्चा) कहा गया है । जो मुनि उसमें हार नहीं खाता है वही (संसार का ) पारगामी होता है । परीषहों या किसी भी घातक प्रहार से आहत होने पर भी वह फलक (लकड़ी का पटिया जिस तरह लकड़ी के दोनों बाजू से छीलकर उसका फलक बनाया जाता है उसी तरह : रीर और कषाय दोनों ओर से कृश मुनि को 'फलगावयट्ठी' कहा जाता है) की भाँति कृश या सुस्थिर रहता है । मृत्यु निकट आने पर वह घबराता नहीं है बल्कि विधिवत् संलेखना धारण कर शरीर का अन्त होने तक काल (मृत्यु) की प्रतीक्षा करता है | 233 ( मृत्यु की आकांक्षा नहीं । तात्पर्य यह कि वह एक वीर योद्धा की भाँति परीषहों या मनोविकारों के साथ युद्ध करने में मृत्यु से भय नहीं खाता है और न उससे बचने या पीछे हटने का प्रयास ही करता है, अपितु मृत्यु के सन्निकट आने पर शान्त और अविचल भाव से मृत्यु को जीत लेता है ।
संलेखना का अर्थ व स्वरूप :
'संलेखना ' जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है । 'संलेखना ' पद 'सम्' और 'लेखना' इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न है । 'सम्' का अर्थ है सम्यक्तया और 'लेखना' का अर्थ है कृश करना। अतः आचारांग में 'कसाय पणुए किच्चा अप्पाहारो तितिक्खए' तथा 'अन्तो बहिं विउस्सिज्ज' २३४ द्वारा संलेखना के प्रयोजन को स्पष्ट किया गया है । संलेखना दो प्रकार ही है-बाह्य और आभ्यन्तर । वाह्य संलेखना शरीरादि की होती है और आन्तरिक-संलेखना कषायों की । इसे द्रव्य और भाव संलेखना भी कह सकते हैं । साधक मृत्यु की निकटता को जानकर, आहारादि का त्याग कर समाधिपूर्वक मृत्यु को स्वीकार करता है । संलेखनापूर्वक मृत्यु को जैन आचार - शास्त्र में 'समाधिमरण' अथवा 'पंडित मरण' या संथारा' कहते हैं ।
संलेखना करने का समय :
भिक्षु का आहार करना और नहीं करना दोनों सकारण है । जब तक यह शरीर रत्नत्रय की साधना में सहायक रहे, तब तक शरीर का सामान्यतया पोषण करना आवश्यक है, किन्तु 'जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति - पुट्ठो अबलो अहंसि, णाल महमंसि गिनंतर संक्रमणं भिक्खायरियगमणए २३५ जब भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैं रोगाक्रान्त होने के
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