Book Title: Acharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 289
________________ २७६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन बैठता है, जबकि संलेखना ( समाधि ) के मल में ऐसा कोई कारण नहीं होता है। अतः इस प्रकार समाधिमरण या शरीर-विमोक्ष को आत्मघात कथमपि नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह सही है कि बाह्य दृष्टि से इन तीनों अनशनों में काय-क्लेश की उग्रता या शारीरिक कष्ट सहन अवश्य प्रतीत होता है किन्तु इसके अन्तर में झाँककर देखने पर परिलक्षित होता है कि वहाँ संलेखना या अनशन में स्थित साधक सभी कामनाओं एवं मनोभावनाओं से ऊपर उठकर आयु कालों के अन्त तक समता-सागर में गोते लगाता रहता है और सहर्ष परिषहों से जूझते हुए समता और समाधिपूर्वक प्राणों का विसर्जन कर संसार या आयुकाल का पारगामी हो जाता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि संलेखनाधारी की मृत्यु मोक्षप्रदायिनी और कल्याणकारिणी होती है। आचारांग के आधार पर निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि (१) आत्म-हत्या कष्टों से ऊबकर की जाती है, जबकि समाधिमरण में कष्टों में समभाव की उत्कर्षता रहतो है। (२) आत्म-घात कायरता और भीरुता का द्योतक है जबकि समाधिमरण वीरता और निर्भयता का बोधक है। (३) आत्म-हत्या में विवशता और हताशा होती है तो संलेखना जीवन के अन्तिम समय में मृत्यु को निकटता का भान होने पर तप-विशेष की आराधना में परिपूर्ण होती है । (४) आत्म-हत्या में शब्दादि काम-लोभों की लोलुपता रहती है तो संलेखना में इनका सर्वथा अभाव रहता है । (५) आत्म-हत्या में कुण्ठाएँ व मनोग्रंथियाँ काम करती हैं तो संलेखना में बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। (६) आत्महत्या मोह-महत्त्व का घर है तो संलेखना विमोहायतन ( मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन ) है । (७) आत्महत्या मानसिक अप्रसन्नता एवं अपवित्रता का परिचायक है तो संलेखना मानसिक प्रसन्नता एवं शुद्धता की परिबोधिका है। (८) आत्महत्या में कषायों की बहुलता या स्थूलता होती है तो संलेखना में कषायों की अल्पता या तनुता होती है। (९) आत्महत्या में अधैर्य, असंयम, अविवेक, अज्ञान एवं मोह-ममता का आधिक्य रहता है तो संलेखना के लिए धोरता, संयम, ज्ञान हेयोपादेय का विवेक आवश्यक रहता है। (१३) आत्मघात तीव्र राग-द्वेष वृत्तियों का परिणाम है तो संलेखना या समाधिमरण समभाव का परिणाम है। सन्दर्भ-सूची अध्याय ८ १. आचारांग, १/१/७ पर शीलांक टी०, पत्रांक ७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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