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२७४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन उक्त दोनों अनशनों से श्रेष्ठतम माना गया है। इसका समर्थन करते हुए कहा है
अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे २६१ यह उत्तम धर्म है। यह अनशन पूर्व स्थान द्वय-भक्तप्रत्याख्यान एवं इत्वरिक अनशन से प्रकृष्टतर ग्रह (नियंत्रण) वाला है। इसमें पूर्वोक्त अनशनों का आचार तो है ही, किन्तु पूर्णरूप से निश्चल रहना इसका विशेष धर्म है। विशेष आचार :
(१) अपने पूर्व नियत स्थान से चलित नहीं होना (२) शरीर को सर्व प्रकार से विसर्जित कर देना (३) परिषहों के उपस्थित होने पर यह सोचना कि यह शरीर ही मेरा नहीं है (४) जब तक जीवन है तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग हैं यह जानकर शरीर के ममत्व को विसर्जित कर देना (५) प्राज्ञ और संवृतात्मा वाला होकर शरीर-भेद के लिये उन कष्टों को समभावपूर्वक सहना, (६) इहलौकिक काम-भोगों की नश्वरता को समझकर उनमें तनिक भी आसक्त नहीं होना (७) इच्छाओं या लोलुपताओं का सेवन नहीं करना (८) देवों के शाश्वत दिव्य-भोगों के लिए निमंत्रित किए जाने पर भी उनकी इच्छा नहीं करना और न उस दैवमाया पर श्रद्धा करना तथा (९) देवी और मानुषी सब प्रकार के शब्दादि विषयों में अनासक्त रहना ।२६२
इस प्रकार आयु का पारगामी भिक्षु तितिक्षा को श्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष-भक्त-प्रत्याख्यान, इत्वरिक और पादोपगमन में से किसी एक को स्वीकार करे।
ऊपर विवेचित तीनों अनशनों में भक्त-प्रत्याख्यान अनशन सामान्य कोटि का है। इत्वरिक अनशन मध्यम और पादोपगमन अनशन उत्तम कोटि का है। ये तीनों कोटियाँ साधक की शारीरिक क्षमता की अपेक्षा से हैं, किन्तु तत्त्वतः तीनों का मूल उद्देश्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति ही है। बशर्ते कि वह साधक आयु काल पर्यन्त दृढ़ प्रतिज्ञ रहकर समत्वपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करे। यदि वह इस प्रकार संलेखनापूर्वक समाधिमरण करता है तो उक्त किसी भी अनशन से जन्ममरण पर विजय पा लेता है । संलेखना में साधक न केवल मृत्यु का अन्त करता है अपितु समाधिमरण के द्वारा जन्म या जन्म के मूलभूत हेतु का उन्मूलन कर लेता है। इस प्रकार समाधिमरण के द्वारा अभीष्ट फल
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