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२७२ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन क्रमण ( गमनागमन ) करे। हाथ-पैर आदि को सिकोड़े-फेलाए। यदि शक्ति हो तो इस अनशन में भी अचेतन व्रत अर्थात् पादोपगमन की भांति निश्चेष्ट रहे ।
(५) यदि वह श्रान्त हो जाए तो चक्रमण करे, चलने पर थक जाए तो सीधा खड़ा हो जाए। खड़ा-खड़ा श्रान्त हो जाए, तो अन्त में बैठ जाए।
(६) इस अनुपम अनशन की साधना में लीन भिक्षु अपनी इन्द्रियों को सम्यक् रूप से संचालित या प्रेरित करे अर्थात् इष्ट-अभीष्ट, इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष न करे।
(७) वह घुन-दीमक आदि से युक्त काष्ठ, स्तम्भ, पट्टे आदि का सहारा न ले किन्तु घुन-दीमक आदि से रहित काष्ठ स्तम्भ आदि की एषणा करे।
(८) जिसका सहारा लेने से बज्रवत् भारी कर्म उत्पन्न हो, ऐसी सदोष काष्ठ, फलक आदि वस्तुओं का सहारा न ले । उससे अपने आपको दूर रखे ओर वहाँ उपस्थित सभी कष्टों को सहन करे ।२५६ इतना ही नहीं, भक्तप्रत्याख्यान अनशन में जिन सावधानियों का निर्देश दिया है उनसे भी इस अनशन में सतर्क रहना आवश्यक है। इत्वरिक अनशन का महत्त्व :
वास्तव में, यह अनशन सत्य स्वरूप है। इसे स्वीकार करने वाला सत्यवादी, वीतराग, तीर्ण ( संसार पारगामी) 'इस अनशन को प्रतिज्ञा को निभा पाऊँगा या नहीं' इस संशय से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, जीवाजीवादि पदार्थों का परिज्ञाता, इस शरीर को क्षणभंगुर मानकर नाना प्रकार के परीषहों को सहकर भेद-विज्ञान की भावना तथा इस भैरव ( भयानक ) अनशन का अनुपालन करता हआ क्षुब्ध नहीं होता है। इस अनशन में उसकी वह मृत्यु काल-मृत्यु होती है, तथा हितकर, सुखकर, कल्याणकर, कालोचित और भविष्य में अनुगमन करने वाली होती है ।२५७ पादोपगमन अनशन-शरीर-विमोक्ष के सन्दर्भ में : लक्षण:
पादोपगमन अनशन में आहार एवं कषायों के त्याग के साथ ही शरीर का ममत्व, शारीरिक प्रवृत्तियाँ एवं गमनागमन का प्रत्याख्यान किया जाता है । आचारांग में कहा गया है-'कायं च गोयं च इरियं च
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