________________
२७० : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
तथा विलवासी (सर्प आदि ) जन्तु शरीर का मांस खाएं, रक्त पीए तब भी उनका घात नहीं करे और उनका प्रमार्जन ( निवारण ) भी नहीं करे | २४८
इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर ग्रंथियों से वह भिक्षु आयु- काल की या अनशन की प्रतिज्ञा का पार पा जाता हैं । २४९
(२) इत्वरिक अनशन - शरीर विमोक्ष के सन्दर्भ में : इत्वरिक अनशन को अर्थ व स्वरूप :
यह अनशन का द्वितीय प्रकार है । 'इत्वरिक' का अर्थ है थोड़े से निश्चित प्रदेश में जीवन भर संक्रमण करना । इसे इंगित मरण भी कहते हैं इंगित का अर्थ है जिसमें गमनागमन सम्बन्धी भूमि- प्रदेश इंगित कर दिया जाता है । इत्वरिक अनशन को स्वीकार करने वाला साधक मर्यादित भूमि में उठने-बैठने, सोने आदि से सम्बन्धित शारीरिक क्रियाएं कर सकता है । अतएव इस अनशन को 'इत्वरिक' अनशन कहा गया है । यहाँ इसका अल्पकालिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है अपितु थोड़े से निश्चित या नियत क्षेत्र से है । इसके स्वरूप को अभिव्यंजित करते हुए सूत्रकार कहता है
आयवज्जं पडियारं विजहिज्जा तिहातिहा ( आचारांग, ११८८ ) इस अनशन में स्थित भिक्षु अंग-प्रत्यंगों के व्यापार (संचार) में मनसावाचा और कर्मणा दूसरे का सहारा न ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे अर्थात् सीमित स्थान में स्वयं उठना बैठना आदि क्रियाएं कर सकता है किन्तु उठने बैठने और चक्रमण में अपने अतिरिक्त किसी दूसरे के सहारे ( परिचर्या ) का तीन करण और तीन योग से त्याग कर देता है । २५०
1
इत्वरिक अनशन के योग्य स्थान :
संलेखना - साधक भिक्षु गांव में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मंडप में, पत्तन में, द्रोणमुख आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी में, कहीं भी इस अनशन को ग्रहण कर सकता है ।
जहाँ पर कीड़े, अण्डे, जीवजन्तु - बीज, हरीत, ओस, उदक, चीटियों के बिल, फफूंदी, गीली मिट्टी और मकड़ी के जाले हों उस स्थान पर यह अनशन स्वीकार नहीं करना चाहिए । २५१
इत्वरिक अनशन ग्रहण-विधि :
एकत्व२५२ भावना में संलग्न मुनि अनास्वाद २५३ वृत्ति से रुक्ष आहार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org