Book Title: Acharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 281
________________ २६८ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन अनशन तब किया जाता है जब तक शरीर - बल क्षीण न हो अर्थात् शरीर समर्थ रहे । आचारांग में इसके लिए आनुपूर्वी शब्द का प्रयोग मिलता है । भक्त प्रत्याख्यान : 'भक्तप्रत्याख्यान' जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । भक्त का अर्थ है भोजन और प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग करना । अतः भक्त प्रत्याख्यान का अर्थ हुआ — मृत्यु के निकट काल में आहार -पानी का त्याग करना । आचारांग में अभिग्रहनिष्ठ मुनियों द्वारा ग्रहण किए जाने वाले विभिन्न प्रकल्पों ( विशिष्ट आचार-मर्यादाओं, संकल्पों ) या प्रतिज्ञाओं की चर्चाएं आई हैं । यहाँ भिक्षुओं द्वारा ग्रहीत वैयावृत्य ( सेवा ) के छ: प्रकल्पों या संकल्पों का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं (१) कुछ भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं ग्लान हूँ, साधर्मिक भिक्षु अग्लान हैं, स्वेच्छा से उन्होंने मुझे सेवा का वचन दिया है अतः वे सेवा करेंगे तो मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा । (२) किसी भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है कि मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान है, मैं अग्लान हूँ । उसके द्वारा अनुरोध नहीं करने पर भी मैंने उसे सेवा के लिए कहा है । अत: निर्जरा आदि की दृष्टि से मैं उसकी सेवा करूँगा । (३) कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि मैं साधर्मियों के लिए आहारादि लाऊँगा और उनके द्वारा लाया हुआ आहार स्वीकार भी करूँगा । (४) अथवा कोई मुनि यह अभिग्रह ग्रहण करता है कि मैं साधर्मिक भिक्षुओं के लिए आहारादि लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाए हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा । (५) अथवा किसी भिक्षु का यह संकल्प होता है कि मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊंगा । किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ आहारादि स्वीकार करूँगा । (६) किसी का यह अभिग्रह होता है कि मैं न तो उनके लिए आहारादि लाऊँगा और न उनके द्वारा लाया हुआ आहारादि सेवन करूँगा | २४५ उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञाओं में से भिक्षु अपनी शक्ति एवं रुचि के अनुसार चाहे जिस प्रतिज्ञा को स्वीकार करे या उत्तरोत्तर सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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