Book Title: Acharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 275
________________ २६२ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन है। श्रमण-साधना का मुख्य लक्ष्य है-समत्व । गीता में जिसे समत्व योग कहा है । इस समतायोग को भंग करने वाली अनेक अनुकूल-प्रतिकूल बाधाओं, कष्टों का या परिस्थितियों का साधु-साध्वी को सामना करना पड़ता है और वे परिस्थितियाँ या बाधाएँ ही श्रमण-श्रमणी के समत्व की परीक्षा की विशेष कसौटियाँ हैं। उनमें उत्तीर्ण होने वाला अर्थात् उन पर विजय प्राप्त कर लेने वाला साधक ही अपने लक्ष्य में सफल होता है । वास्तव में इन अनुकूल-प्रतिकूल कष्टों को सहने से साधक सांसारिक विषय भोगों से अनासक्त बनता जाता है । यूँ तो ऐसे कष्ट अगणित हो सकते हैं, किन्तु ग्रन्थों में मुख्यतः बाईस का वर्णन आता है। मुनि जिन-भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि कष्टों को सहता है, उन्हें आचारांग में 'परीषह' के नाम से अभिहित किया गया है। आचरांग में 'परीषह' के अर्थ में 'उपसर्ग' शब्द का भी प्रयोग मिलता है। ये परीषह या उपसर्ग मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत और देवकृत होते हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आचारांग२30 में बाईस परीषहों का स्वरूप, वर्गीकरण आदि का क्रमशः एक साथ वर्णन नहीं मिलता है किन्तु विभिन्न प्रसंगों में बिखरे रूपों में बाईस परीषहों से सम्बन्धित चर्चा हुई है । वे बाईस परीषह इस प्रकार हैं-(१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंसमसक (६) नाग्न्या ( अचेल या अल्पवस्त्रत्व ) (७) अरति (८) स्त्री (९) चर्या (१०) निषद्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) मल (१९) सत्कार-पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन। इस प्रकार श्रमण को अपने साधना मार्ग में आने वाले उक्त सभी कष्टों या परीषहों को समभाव एवं धैर्यपूर्वक सहते हुए अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहना चाहिए। दृढ़ता के साथ उन पर विजय प्राप्त करना ही श्रमण-श्रमणी का विशेष आचार है। इस परीषहजय के द्वारा वह साधक अपने आपने आपको पूर्ण योगी या इन्द्रियजयी बना लेता है । समाधिमरण भी एक कला है : जैन साधना आनन्दपूर्वक जीने की साधना है। वास्तव में, आचारमर्यादाओं से आबद्ध जीवन ही सर्वोत्कृष्ट जीवन है। आचारांग व्यक्ति को जीने की कला भी सिखलाता है और मरने की कला भी। जीवन जीने की कला का स्वरूप प्रायः सभी धर्म प्रणेताओं एवं नीतिज्ञों ने जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु आचारांग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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