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२६० : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
इसे द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्गं कहा गया है | शरीर, उपधि (वस्त्रपात्रादि उपकरण ) सहयोग और भक्त - पान इन चार बाह्य आलम्बनों का विसर्जन (त्याग) बाह्य व्युत्सर्गं है, और कषायादि आन्तरिक दोषों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग कहा गया है। उत्तराध्ययन में सोने, बैठने और खड़े रहने के समय शरीर को इधर-उधर न हिलाकर एक स्थान पर स्थिर रखना व्युत्सर्गं तप है । वहाँ केवल शरीर व्युत्सर्ग की बात कही गई है । २२२ इस तप के प्रसंग में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के धूत २२३ अध्ययन में संसार के हेतु राग-द्वेष कषाय बाह्य पदार्थों का त्याग एवं आत्मा को शुद्ध करने की प्रक्रिया का वर्णन है । 'धूत' का अर्थ होता है - प्रकम्पित, शुद्ध या त्याग करना । इसी तरह आचारांग के 'विमोक्ष' अध्ययन में आहार, शरीर, उपधि - पर सहाय और कषाय व्युत्सर्गं का विवेचन है ।
'व्युत्सर्ग' को कायोत्सर्ग भी कहते हैं । कायोत्सर्ग का अर्थ हैकायस्य-उत्सर्गः अर्थात् काया का उत्सर्गं ( शरीर को छोड़ देना ) किन्तु प्रश्न यह है कि आयु के रहते शरीर का त्याग कैसे सम्भव है ? यह शरीर अपवित्र है, असार है, अनित्य और विनाशशील है, इसमें आसक्ति ममत्व भाव रखना ही दुःख का मूल है, इस परिबोध से ' जीवोन्यः पुद्गलश्च अन्य:' आत्मा भिन्न है, और शरीर भिन्न है, का भेद-विज्ञान जाग्रत होता है और जिसे यह भेद-विज्ञान होता है वह 'एगो हमंसिण मे अस्थि कोइ' इस एकत्व - भावना का तन्मयता के साथ चिन्तन करता है । इस प्रकार के दृढ़ संकल्प या चिन्तन से देहासक्ति शिथिल हो जाती है, उसके प्रति आदर भाव घट जाता है । इस स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है । इस विवेक-चेतना के जागरण से कायोत्सर्ग की भूमिका दृढ़तर होती जाती है, कायोत्सर्ग सधता है । इस प्रकार कायोत्सर्गं का मूल अर्थ है - शरीर का अहंकार - ममकार छूट जाना, मानसिक ग्रंथियों का खुल जाना और तनावों का घट जाना ।
वास्तव में, श्रमण श्रमणियों की साधना का आधार मन, वचन और काय का सर्वथा विरोध करना है, परन्तु यह साधना इतनी आसान नहीं है कि साधक उसे सुगमतया साध सके । अतः उस अवस्था तक पहुँचने हेतु कायोत्सर्गं महत्त्वपूर्ण साधन है । इसके द्वारा साधु परिमित अवधि के लिए अपने योगों का निरोध करने का अभ्यास करता है । अतः आचारांग में साधकों की योग्यता एवं क्षमता को दृष्टिगत रखकर कायोत्सर्गं के चार अभिग्रह बताये गए हैं ।
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