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श्रमणाचार : २५७ सर्दी-गर्मी सहने या आतापना लेने के पीछे भी एक विशेष दृष्टिकोण है । काय-क्लेश तप के प्रसंग में आचारांग के उपकरण विमोक्ष उद्देशक में यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु लज्जा को जीतने में समर्थ हो वह सर्वथा अचेल रहे, कटि-बन्धन धारण न करे और जो गुप्तांगों के प्रतिच्छादन ( वस्त्र ) को छोड़ने में समर्थ नहीं है, इस कारण से वह कटिबन्धन को धारण कर सकता है। उसे घास की चुभन होती है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह एक जातीय, भिन्न जातीय ( नाना प्रकार के ) स्पर्शो-कष्टों को सहन करता है, और लाघवता का चिन्तन करता हुआ अचेल रहता है। उस अचेल मनि के उपकरण अवमौदर्य एवं कायक्लेश तप होता है । २०५ इसी तरह एक वस्त्रधारी२०६, द्विवस्त्रधारी२०७ और निर्वस्त्रधारी२०८ मुनि के उपकरण के सन्दर्भ में भी जानना चाहिए।
अतः स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ साधु सर्दी-गर्मी, रति-अरति के कष्टों को सम्यक्तया सहन करता है। उनसे तनिक भी विचलित नहीं होता है। उन कष्टों या परीषहों के सहने में उसे जो पीड़ा होती है उस पीड़ा को वह पीड़ा रूप में वेदन नहीं करता है । २०९ इस प्रकार काय-क्लेश तप का प्रयोजन काया को कष्ट देना नहीं, अपितु साधना के उद्देश्यों की सम्पूर्ति के लिए शारीरिक क्षमता को विकसित करना है। (६) प्रतिसंलीनता या विविक्त शय्यासन :
स्त्री, पुरुष, नपूसक आदि से रहित श्मशान, गिरि-गुफा, शन्यागार आदि एकान्त स्थानों में निवास करना विविक्त शय्यासन तप है। इन्द्रिय, कषाय और योग संलीनता के भेद से विभिन्न २१० ग्रन्थों में इसे प्रतिसंलीनता तप भी कहा गया है। आचारांग में कहीं प्रतिसंलीनता शब्द तो नहीं आया है किन्तु इन्द्रिय और योग के सन्दर्भ में 'आलीनगुप्त' शब्द का प्रयोग मिलता है । आचारांग में शय्यषणा नामक अध्ययन में विविक्त शय्या के बारे में विशद रूप से प्रकाश डाला गया है। श्रमणश्रमणियों को शयन, आसन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग कहां करना चाहिए और कहां नहीं करना चाहिए ? अथवा कहां नहीं ठहरना चाहिए ? ___ आचारांग में मुनि को निर्देश देते हुए कहा है कि लोहकारशालाएँ, धर्मशालाएँ, देवकुल, प्रपाएँ, सभाएँ, प्याऊ, दुकानें, यानशालाएँ, चूने, काष्ठ, कोयले के कारखाने, श्मशान भूमि में बने हुए मकान, पहाड़ पर बने हुए मकान, पहाड़ी गुफा, शून्यगृह-शान्तिगृह, पाषाण
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