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श्रमणाचार : २४९ कर वघ्यभूमि ले जाया जा रहा हो, इन अवसरों पर होने वाले शब्दों को सुनकर उन स्थानों पर जाने का साधु संकल्प न करे । १७3 बहुत से शकट, रथ, म्लेच्छ एवं प्रान्तीय लोगों के स्थानों पर होने वाले अनेक तरह के शब्दों को सुनने के लिए मुनि वहाँ जाने का संकल्प न करे। इसी प्रकार जहाँ पर अपने राज्य के विरोध में या अन्य देश के राजा के विरोध में, दो देश के राजाओं के पारस्परिक विरोध में, कलह, वैरविद्वेष या संघर्ष सम्बन्धी वार्तालाप चल रहा हो तो वहाँ जाकर मुनि उनकी बात-चीत न सुने ।१७४ न देखने योग्य पस्तुएं : ___ आचारांग में मुनि को रूप-सौन्दर्य देखने का भी निषेध है। साधुसाध्वी फूल आदि से गुथी गयी माला, स्वस्तिक आदि वस्त्रों से बनी हुई पुतलियाँ, विभिन्न प्रकार के आभूषणों से निर्मित पुरुषों की आकृतियों को देखने का संकल्प न करे । लकड़ी आदि से सौन्दर्यपूर्ण वस्तुएँ, पुस्तकें, चित्रकारी को भी राग-द्वेष, बुद्धि से देखने के लिए जाने का विचार न करे। इसी तरह हाथी दांत, कागज, मणि, पत्रों आदि से बनाई गई विविध वस्तुएँ, शिल्पकला एवं वास्तुकला अर्थात् विविध कलाओं एवं सुन्दर आकृतियों को देखने की दृष्टि से मुनि गमनागमन का विचार न करे । १७५ यह भी कहा है कि साधु-साध्वी इहलोक और परलोक सम्बन्धी दृष्ट-अदृष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दादि में आसक्त न हो। उन्हें सुनने-देखने की भी आकांक्षा न करे और न उनके प्रति राग-द्वेष करे। यही साधु की साधुता का इन्द्रिय-निग्रह रूप आचार है ।१५
निष्कर्ष यह है कि श्रमण-जीवन साधना प्रधान है, आत्मोपलब्धि के लिए है । इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होने से राग-द्वेष पैदा होता है, चित्त अशान्त रहता है और स्वाध्याय, ध्यान आदि में विघ्न आता है। पर-क्रिया रूप आचार ( गहस्थ के द्वारा की जाने वाली सेवा का निषेध):
पर का अर्थ है-अन्य (दूसरा) और क्रिया का मतलब है आचरण या कार्य। अतः किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भिक्ष के शरीर पर की जाने वालो किसी भी प्रकार की क्रिया को पर-क्रिया कहते हैं। मुनि को गृहस्थ द्वारा की जाने वाली किसी भी प्रकार की सेवा, शुश्रूषा, शृंगार, उपचार आदि को स्वीकार करने का निषेध है।।
मुनि, मन, वचन और काया से अपनी आत्मा के लिए कर्म-बन्धन रूप कोई क्रिया किसी से न करवाये । कोई गृहस्थ साधु के पैर आदि का
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