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२५० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन प्रमार्जन करे, पोंछ कर साफ करे, सम्मर्दन करे, शीतल या उष्ण-जल से धोए, तेल, घी आदि कोई स्निग्ध पदार्थ या औषधि विशेष से मालिश करे, लोध्र, कर्क चूर्णादि से उबटन करे, विविध प्रकार के विलेपनों से आलेपन करे, पैरों के घाव रुधिरादि को निकाल कर साफ करे, पैरों में गड़े हुए कांटे निकाले और भी विशेष प्रकार से कोई शल्य चिकित्सा करे तो मुनि इनकार कर दे । इसी तरह साधु के शरीर में उत्पन्न हुए गंडा, फोड़ा, अर्श, पुलक, भगंदर आदि व्रणों को शल्य क्रिया द्वारा छेदन कर रुधिर को निकाले व साफ करे, शरीर पर से मलयुक्त प्रस्वेद को दूर करे, आँख, कान, दाँत, नखों के मैल को दुर करे तथा सिर के लम्बे केशों को, शरीर के दीर्घ रोमों को, गुह्य प्रदेशों के रोमों को या नखों को काटे, साफ करे तो मुनि उक्त क्रियाएं न करवाए। इसी तरह साधु को गोद में या पलंग पर बिठाकर या सुलाकर उसे आभूषणों से सुशोभित करे तो साधु ऐसी क्रियाओं को न मन से चाहे और न वचन व काया से करवाए । वह स्पष्ट रूप से इनकार कर दे।
इसी तरह बिना किसी परिस्थिति विशेष के भिक्ष-भिक्ष के बीच अथवा भिक्षुणी-भिक्षुणी के बीच उपर्युक्त पर-क्रिया का निषेध समझना चाहिए। चिकित्सा का परिहार :
यदि कोई गृहस्थ साधु-साध्वी को रुग्ण समझकर शुद्ध या अशुद्ध मंत्र बल से चिकित्सा करे अथवा सचित्त कन्द-मूल, वृक्ष, छाल, हरी वनस्पति आदि का हनन कर या दूसरों से करवाकर उपचार करे तो साधु-साध्वी ऐसी सावध-पापमय चिकित्सा को मन से भी न चाहे तथा वाणी और शरीर द्वारा न करवाए। वह उस वेदना के समय यह चिन्तन करे कि प्रत्येक जीव अपने कृत अशुभ कर्मों के फलस्वरूप कटुवेदना का अनुभव करती है अतः मुझे भी स्वकृत कर्मजन्य इस वेदना को समभाव एवं समाधिपूर्वक सहना चाहिए। मेरे लिए यही कल्याणप्रद है। इस प्रकार वह अपने उपचार निमित्त किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचाते हुए अपना संयम साधना में प्रयत्नशील रहता है। यही साधु-साध्वी का पर-क्रिया रूप आचार है ।१७७ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी अणगार के लिए हिंसामलक चिकित्सा या जीवों को क्लेश पहुँचाने वाली चिकित्सा करवाने का निषेध है। १७० अन्योन्य क्रिया रूप आचार : (१) साधु-साधु या साध्वी-साध्वी के बीच क्रिया का निषेध :
आचारांग में विशेष रूप से यह निरूपित है कि सामान्य स्थिति में
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