________________
श्रमणाचार : २५१
एक साधु दूसरे साधु के पैरों की मालिश न करे अथवा एक साध्वी दूसरी साध्वी के पैरों की मालिश आदि क्रिया न करे, अर्थात् परस्पर क्रिया न करे | यह कर्मबन्ध का कारण है । शेष वर्णन तेरहवें अध्ययन के समान ही समझना चाहिए । १७९
स्वावलंबन की दृष्टि से ही एक-दूसरे की क्रिया करने का निषेध है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अस्वस्थ अवस्था में एक-दूसरे की सेवाशुश्रूषा (वैयावृत्य) न की जाय । आचारांग तथा परवर्ती ग्रन्थों में वैयावृत्य को कर्मनिर्जरा का परम कारण बताया गया है ।
चातुर्मास एवं मास सम्बन्धी कल्प :
श्रमण श्रमणी के लिए आठ महीने निरन्तर पद-यात्रा और वर्षा के चार महीने जीव-रक्षा की दृष्टि से एक स्थान पर वास करने का विशेष विधान है । वर्षा के चार महीने एक स्थान पर स्थिर रहकर ज्ञान-ध्यानस्वाध्याय या आत्म-चिन्तन एवं सदुपदेशों से जन-जागृति का कार्य करना श्रेयस्कर है । अतः आचारांग में चातुर्मास एवं मास कल्प विषयक अनेक मर्यादाएं निर्धारित की गई हैं ।
एक स्थान पर वर्षावास :
वर्षा ऋतु के चार महीने तक साधु-साध्वी को जीव हिंसा से बचने तथा आवागमन के मार्ग अवरुद्ध होने के कारण एक ही स्थान पर चातुर्मास करने का विधान है। हरी, गोली तथा जीव-जन्तुओं से भरी भूमि पर चलना अहिंसा महाव्रती साधु के लिए निषिद्ध है । वर्षावास के अयोग्य क्षेत्र :
संयम साधना की शुद्धता के लिए निर्दोष भिक्षा, निर्दोष शय्या, निर्दोषमलोत्सर्गं भूमि एवं स्वाध्याय की अनुकूलता आदि की प्राप्ति भी आवश्यक है । अतः चातुर्मास लगने के पूर्वं इनका पूरी तरह अवलोकन कर लेना चाहिए क्योंकि वर्षावास (चातुर्मास ) जीव- रक्षा, संयम - साधना एवं रत्नत्रयी की आराधना के लिए किया जाता है । इसलिए साधु को इनमें दिव्यता व तेजस्विता लाने का मुख्य उद्देश्य रखना चाहिए ।
वर्षावास करने वाले श्रमण श्रमणी को क्षेत्र विषयक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए । इस विषय में कुछ निर्देश इस प्रकार हैंसाधु-साध्वी ऐसे असुविधाजनक स्थानों पर चातुर्मास न करें :
(१) जिस गांव या नगर में एकान्त स्वाध्याय भूमि न हो, (२) मलमूत्र त्याग करने योग्य भूमि न हो, (३) पीठ, फलक (चौकी) शय्या और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org